Book Title: Jain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Sima Dwivedi
Publisher: Ilahabad University
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इस काव्य में प्रकृति का वर्णन अत्यन्त सजीव और हृदयावर्जक है। आचार्य की सूक्ष्म दृष्टि ने प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यो को सावधानी से हृदयंगम किया है। इन्होंने ग्रीष्म, शरद एवं वसन्त ऋतु का वर्णन इतना सजीव किया है कि वे हमारे नेत्रो के सामने सजीव हो उठती है। मनुष्य तथा प्रकृति का मंजुल साहचर्य तथा दोनो मे अद्भुत एकात्मता दिखाकर कवि ने मानव और प्रकृति को परस्पर पूरक रूपे में चित्रित किया है। आचार्य ने प्रकृति के हृदय के प्रत्येक स्पन्दन को पहचाना है। इस काव्य में कवि ने जितने भी उपमान दिये है। उनमे से अधिकांश प्रकृति जगत से गृहीत है।
अलंकार की दृष्टि से यह काव्य उच्चकोटि का है। अलंकार निरूपण मे आचार्य मेरुतुङ्ग अति निपुण हैं। जैनमेघदतम् में नियोजित अनेकविध अलंकार उनकी काव्यप्रतिभा के निदर्शन हैं। काव्य में प्रत्येक अलंकार अपने आप मे एक विशेष चमत्कृति रखता है। प्राय: जैनमेघदूतम् का प्रत्येक श्लोक चार पाँच अलंकारों के गुच्छक से अलंकृत है। आचार्य अलंकार प्रतिभा में सिद्धहस्त है, तभी तो एक ही श्लोक में सात आठ अलंकारों के समूह से सनिवेश होने पर भी उस श्लोक का मूल भाव और शिल्प नष्ट नहीं होने पाया है, उदाहरणार्थ
'वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायं - स्तालान् दधे परभृतगणः कीचका वंशकृत्यम् । वल्ल्यो लोलैः किशलयकरैलास्यलीलां च तेनुस्तद्भक्त्येति व्यरचयदिव प्रेक्षणं वन्यलक्ष्मीः।।'
यहाँ पर अप्रकृति से प्रकृति की उपमा दी जाने के कारण अतिशयोक्ति अलंकार; किसलय और कर में अभेद होने के कारण रूपक अलंकार;
जैनमेघदूतम् २/१४

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