Book Title: Jain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Sima Dwivedi
Publisher: Ilahabad University

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Page 235
________________ 224 शोणो नाभ्याञ्चति सदृशतां गोपुरं वक्षसा च छुद्रो शाखानवकिशलयो बाहुपणिद्वयेन।।' पूणेन्दुः ...............-उपमाधिक्यदोषस्तथापि।' अर्थात् कमल उनके चरणो के कदलीस्तम्भ उनकी उरूओं के गङ्गा का तट उनकी कटि के शोण उनकी नाभि के, प्रतोलीद्वार (तोरण) उनके वक्ष के, कल्पवृक्ष की शाखा उनकी भुजा के और उसके किसलय उनके करों के, पूर्णचन्द्र उनके श्री मुख के, कमलपात्र उनके नेत्रो के, पुष्प सुगन्ध उनके मुखामोद के और उत्तम रत्न उनके शरीर के सदृश है।' नेमि के सुन्दर वदन से पूर्णचन्द्र का, नेमि के नेत्रों से कमल दल का तथा नेमि के शरीर से रत्न का साम्य है। (यदि विद्वज्जन कही भी वर्णनीय पदार्थ समूहो की भगवान के अङ्गो द्वारा उपमा देते है तो भी उपमाधिक्य दोष होता है)। जहाँ काव्य में उपमेय की अपेक्षा उपमान अधिक हीन प्रतीत होने लगता है तो वहाँ पर हीनोपमा दोष आ गया है उदाहरणार्थ त्वं जीमूत। प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारैः ............-जगज्जन्तु जीवातुलक्ष्म्यै।' अर्थात हे जीमूत। जो उपकार अन्यों के लिए असाध्य है उन उपकारों के करने के कारण आप विख्यात महिमा वाले है आपको देखकर ऐसा कौन है जो अपनी दृष्टि को फैली हुई हथेली के सदृश विशाल नहीं बना देता है जैनमेघदूतम् १/२३ वही १/२४ जैनमेघदूतम् १/२३ वही १/२४ जैनमेघदूतम् १/१२

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