Book Title: Jain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Sima Dwivedi
Publisher: Ilahabad University

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Page 234
________________ ___223 223 जैनमेघदूतम् का मूल्यांकन जैनमेघदूतम् आचार्य मेरुतुङ्ग की काव्य प्रतिभा का ज्वलंत निदर्शन है। सन्देशकाव्य का आदर्श उदाहरण स्वरूप यह काव्य अन्तः प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति दोनो के रुचिर चित्रण मे अपूर्व है। यह चार सर्गों के लघु कलेवर का होने पर भी जीवन के मूल रहस्यों का सन्देश देने में समर्थ रचना है। कवि ने एक विशेष उद्देश्य तत्त्वज्ञान के प्रतिपादन को लेकर इस काव्य कृति की रचना की है और वे इसमे सफल भी हुए है। काव्य मे भावो का नैसर्गिक प्रवाह है। श्री नेमि के चरित्र के प्रति आचार्य की प्रगाढ़ श्रद्धा है। यह श्रद्धा इनके काव्य की मार्मिकता और मनोहरता के लिए उत्तरदायी है। घटनाओं के वर्णन मे कवि जितना कुशल और जागरूक है उतना ही श्लाघनीय हैं। भावो के चित्रण मे भी उतना ही दक्ष और सम्वेदनशील है। हृदय पर सद्यः प्रभाव उत्पन्न करने वाली स्पृहणीय उपमाओ के प्रयोग से अनेक वर्णन अत्यन्त स्वभाविक और प्रभावपूर्ण हो गये हैं; चाहे वे अन्तः प्रकृति के हो चाहे बाह्य प्रकृति के। आचार्य ने व्यावहारिक जगत से ही अपनी उपमाएँ गृहीत नहीं की, अपितु अध्यात्मिक व शास्त्रीय उपमाओं का भी कुशल प्रयोग किया है। इतनी सच्ची परख होने पर भी आचार्य द्वारा उपमाओं के प्रयोग में कहीं-कहीं असावधानी हो गई है जिससे काव्य मे अधिकोपमा दोष तथा हीनोपमा दोष दृष्टिगत होता है। जैसे एक स्थान पर कवि ने नायक के अङ्गो का वर्णन नीचे से ऊपर की ओर किया है जबकि कवि परम्परा में अङ्गों की सुन्दरता का वर्णन ऊपर से नीचे की ओर किया जाता है - पद्मं पद्भ्यां सरलकदलीकाण्ड ऊर्वोर्युगेन स्वर्वाहिन्या पुलिनममलं नेमिनः श्रोणिनैव।

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