Book Title: Jain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Sima Dwivedi
Publisher: Ilahabad University

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Page 227
________________ 217 माना जा चुका है और जो जाना जा चुका है और जो कर्म मे परिणत किया गया हो। अंहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये सम्यक्चरित्र के अंग है। १- अंहिसा:- अहिंसा को जैन दर्शन में परम धर्म माना गया है। अहिंसा ही परम धर्म, मानव का सच्चा धर्म, मानव का सच्चा कर्म मानने वाले केवल जैन लोग है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वैदिक संस्कृति की अपेक्षा श्रमण संस्कृति मे अहिंसा का अधिक महत्त्व है। वैदिक संस्कृति मे जीवो के प्रति दया का भाव रखना ही अहिंसा का अर्थ माना जाता है। परन्तु यज्ञ मे दिये गये निरीह पशु की बलि को हिंसा नहीं माना जाता उसे अहिंसा माना जाता है। जैन दर्शन में किसी को मारना तो दूर छोटे जीव को कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है। जैन धर्म मे हिंसा के दो प्रकार बतलाये गये है- द्रव्यहिंसा तथा भावहिंसा। किसी को कष्ट पहुँचाने का भाव न होने पर भी यदि हिंसा हो जाय तो वह द्रव्य हिंसा है। इसके विपरीत किसी को घात पहुँवाने या कष्ट पहुँचाने का भाव हो तो वह भाव हिंसा है। यर्थाथ में भाव हिंसा है। द्रव्य हिंसा भी हिंसा है परन्तु इसमे पाप नहीं लगता। __ अर्थात् अहिंसा शब्द का अभिधार्थ है 'हिंसा' का त्याग और हिंसा मे मन, वाणी और कर्म तीनो से होने वाली हिंसा शामिल है। अहिंसा से तात्पर्य यह है कि किसी मनुष्य को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाएँ। परन्तु जैन धर्म व्यक्तिगत पक्ष को केवल वहीं तक महत्त्व देता है जहाँ तक उसकी नीति का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास है। आचार्य मेरुतुङ्ग का दृष्टिकोण है कि मनुष्य को अपने जीवन में अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए। इस व्रत के पालन से मनुष्य अन्तिम

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