Book Title: Jain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha Author(s): Ratnalal Jain Publisher: Ratnalal Jain View full book textPage 7
________________ Vo जैन-दर्शन और योग-दर्शन में कर्म - सिद्धान्त D रत्नलाल जैन* भारत-भूमि दर्शनों की जन्म स्थली है, पुण्य स्थली है। इस पुण्य भूमि पर न्याय सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसक बौद्ध, जैन आदि अनेक दर्शनों का आविर्भाव हुआ। उनकी विचार धाराएं हिमालय की चोटी से भी अधिक ऊंची, तथा समुद्र से भी अधिक विशाल हैं । यहां के मनीषी दार्शनिकों ने आत्मा और परमात्मा, लोक और कर्म, पाप और पुण्य आदि महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर बड़ी गम्भीरता से चिन्तन, मनन और विवेचन किया है। कर्म-सिद्धान्त युवाचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में "अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धान्त के बिना नहीं की जा सकती । इसलिए यह एक महान् सिद्धांत है। इसकी अतल गहराइयों में डुबकी लगाना उस व्यक्ति के लिये अनिवार्य है जो अध्यात्म के अंतस की ऊष्मा का स्पर्श चाहता है । " जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में भी इन शब्दों का प्रयोग किया गया हैमाया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य, आदि । 'माया, अविद्या और प्रकृति शब्द' वेदान्त दर्शन में उपलब्ध हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है । 'वासना' शब्द बोद्ध दर्शन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है । 'आशय' शब्द विशेषतः योग और सांख्य दर्शन में उपलब्ध है । 'धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार' शब्द न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों में प्रचलित हैं। देव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि ऐसे शब्द हैं जिन का साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया है । " जैन और दर्शनों में कर्मवाद का विचित्र समन्वय मिलता है । प्रसिद्ध जैयाचार्य देवेन्द्रसूरि' कर्म की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कर्म की परिभाषा (जैन-दर्शन) "जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है ।" पं० सुखलालजी कहते हैं * शोध छात्र, गली आर्यसमाज, हाँसी - १२५०३३ (हिसार) १४. तुलसी प्रशाPage Navigation
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