Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 8
________________ १. ज्ञानावरणीय कर्म ६८ / ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण ६८/१. प्रदोष ६८/ २. निह्नव ६८/ ३. अन्तराय ६८ / ४. मात्सर्य ६८ / ५. असादना ६८/६. उपघात ६८ | ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक ६८ | १. मतिज्ञानावरण ६८/ २. श्रुतिज्ञानावरण ६८/ ३. अवधिनावरण ६८/ ४. मनःपर्याय ज्ञानावरण ६८/ ५. केवल ज्ञानावरण ६८/ २. दर्शनावरणीय कर्म ६९ / दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण ६९ / दर्शनावरणीय कर्म का विपाक ६९ / १. चक्षुदर्शनावरण ६९ / २. अचक्षुदर्शनावरण ६९ / ३, अवधिदर्शनावरण ६९ / ४. केवलदर्शनावरण ६९/ ५. निद्रा ६९ / ६. निद्रानिद्रा ६९ / ७. प्रचला ६९ / ८. स्त्यानघृद्धि ६९/ ३. वेदनीय कर्म ६९ / सातावेदनीय कर्म के कारण ७० / सातावेदनीय कर्म का विपाक ७० / असातावेदनीय कर्म के कारण ७०/ ४. मोहनीय कर्म ७१ / मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण ३७० / (अ) दर्शन मोह ७१ / (ब) चारित्र मोह ७२/ ५. आयुष्य कर्म ७३ / आयुष्य-कर्म के बन्ध के काण ७३ / (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण ७३ / (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण ७३ / (स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण ७४/ (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण ७३ / आकस्मिकमरण ७४ | ६. नाम कर्म ७४ | शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण ७५ / शुभनाम कर्म का विपाक ७५ / अशुभनाम कर्म के कारण ७५ / अशुभनाम कर्म का विपाक ७५ / ७. गोत्र कर्म ७६ / उच्च गोत्र एवं नीच गोत्र के कर्मबन्ध के कारण ७६ / गोत्र कर्म का विपाक ७६ / ८. अन्तराय कर्म ७६ / १. दानान्तराय ७७ / २. लाभान्तराय ७७ । ३. भोगान्तराय ७७ / ४. उपभोगा न्तराय ७७ / ५. वीर्यान्तराय ७७ / ५. घाती और अघाती कर्म सर्वघाती और देशघाती कर्म प्रकृतियाँ ७८ / ६, प्रतीत्यसमुदत्पाद और अष्टकर्म, एक तुलनात्मक विवेचन १. अविद्या ७९ / २, संस्कार ३७९ / ३. विज्ञान ८०/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 110