Book Title: Jain Kala Ka Avdan Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 5
________________ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन जीवंतस्वामी मूर्ति के लक्षणों का भी उल्लेख सर्वप्रथम हेमचंद्र ने ही किया है । अन्य किसी जैन आचार्य ने जीवंतस्वामी मूर्ति के लक्षणों का उल्लेख नहीं किया है । हेमचंद्र ने यह भी उल्लेख किया है कि चौलुक्य शासक कुमारपाल ने वीतभयपट्टन में उत्खनन करवाकर जीवंतस्वामी की प्रतिमा प्राप्त की थी। हेमचंद्र ने स्वयं महावीर के मुख से जीवंतस्वामी मूर्ति के निर्माण का उल्लेख कराते हुए लिखा है कि क्षत्रियकुण्ड ग्राम में दीक्षा लेने के पूर्व छद्मस्थ काल में महावीर का दर्शन विद्युन्माली ने किया था । उस समय उनके आभूषणों से सुसज्जित होने के कारण ही विद्युन्माली ने महावीर की अलंकरण युक्त प्रतिमा का निर्माण किया ।१६ अन्य स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि दीक्षा लेने का विचार होते हुए भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के आग्रह के कारण महावीर को कुछ समय तक महल में ही धर्म-ध्यान में समय व्यतीत करना पड़ा था। हेमचंद्र के अनुसार विद्युन्माली द्वारा निर्मित मूल प्रतिमा विदिशा में थी। उल्लेखनीय है कि किसी दिगंबर ग्रंथ में जीवंतस्वामी मूर्ति की परंपरा का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। तदनुरूप दिगंबर स्थलों से जीवंतस्वामी मूर्ति का कोई उदाहरण भी नहीं मिला है। दिगंबर परंपरा में जीवंतस्वामी मूर्ति के अनुल्लेख का एक संभावित कारण प्रतिमा का वस्त्राभूषणों से युक्त होना हो सकता है। उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि पांचवीं-छठीं शती ई. के पूर्व जीवतस्वामी के संबंध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना नहीं प्राप्त होती है । इस संदर्भ में महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम साहित्य में जीवंतस्वामी मूर्ति के उल्लेख का पूर्ण अभाव जीवंतस्वामी मूर्ति की परवर्ती ग्रंथों द्वारा प्रतिपादित महावीर की समकालिकता की धारणा पर एक स्वाभाविक संदेह उत्पन्न करता है । कल्पसूत्र एवं ई. पूर्व के अन्य ग्रंथों में भी जीवंतस्वामी मूर्ति का अनुल्लेख इसी सन्देह की पुष्टि करता है। वर्तमान स्थिति में जीवंतस्वामी मूर्ति की धारणा को महावीर के समय तक ले जाने का हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। _वर्तमान में प्राचीनतम ज्ञात जैन मूर्ति मौर्यकाल की है। यह मूर्ति पटना के समीप लोहानीपुर से मिली है और संप्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। मूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा इसके जिन मूर्ति होने की सूचना देते हैं । ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग मुद्रा केवल जिनों के निरूपण में ही प्रयुक्त हुई है। इस मूर्ति के सिर, भुजा और जानु के नीचे का भाग खण्डित है। मूर्ति पर मौर्ययुगीन चमकदार आलेप है। इस मूर्ति के निरूपण में यक्ष मूर्तियों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। लोहानीपुर से शुंगकाल या कुछ बाद की एक अन्य जिन मूर्ति भी मिली है, . परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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