Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 10
________________ जैन कला का अवदान एवं लाक्षणिक विशेषताओं के सन्दर्भ में ही दोनों परम्पराओं में भिन्नता दृष्टिगत होती है। महावीर के गर्भापहरण, जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्ति एवं मल्लिनाथ के नारी तीर्थकर होने के उल्लेख केवल श्वेतांबर ग्रंथों में ही प्राप्त होते हैं। २४ जिनों की कल्पना जैन धर्म की धुरी है । ई. सन् के प्रारम्भ से पूर्व ही २४ जिनों की सूची निर्धारित हो गई थी। २४ जिनों की प्रारम्भिक सूचियाँ समवायांग सूत्र, भगवती सूत्र, कल्पसूत्र एवं पउमचरियं में मिलती हैं।३४ शिल्प में जिन मूर्ति का उत्कीर्णन लगभग तीसरी शती ई. पूर्व में प्रारम्भ हुआ। कल्पसूत्र में ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के जीवन-वृत्तों के विस्तार से उल्लेख हैं। परवर्ती ग्रंथों में भी इन्हीं चार जिनों की सर्वाधिक विस्तार से चर्चा है। शिल्प में भी इन्हीं चार जिनों का निरूपण सबसे पहले कुषाण काल में प्रारम्भ हुआ और विभिन्न स्थलों पर आगे भी इन्हीं की सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। मूतियों में इन की लोकप्रियता का क्रम इस प्रकार रहा है : ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर और नेमिनाथ । जैन परम्परा और मूर्तियों में इन्हीं चार जिनों के यक्षा-यक्षी युगलों को भी सर्वाधिक लोकप्रियता मिली । उपर्युक्त चार जिनों के बाद अजितनाथ, संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, शांतिनाथ एवं मुनिसुव्रत की सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। अन्य जिनों की मूर्तियाँ संख्या की दृष्टि से नगण्य हैं। तात्पर्य यह कि उत्तर भारत में २४ में से केवल १० ही जिनों का निरूपण लोकप्रिय था। __ जिन मूर्तियों में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ का लक्षण नियत हुआ। लगभग दूसरीपहली शती ई. पू. की मूर्तियों में पार्श्वनाथ के साथ शीर्षभाग में सात सर्पफणों का छत्र प्रदर्शित हुआ। इसके बाद मथुरा एवं चौसा की पहली शती ई. की मूर्तियों में ऋषभनाथ के कन्धों पर लटकती हुई जटाओं का प्रदर्शन हुआ। कुषाण काल में ही मथुरा में नेमिनाथ के साथ बलराम और कृष्ण का अंकन हुआ। इस प्रकार कुषाण काल तक ऋषभनाथ, नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ के लक्षण निश्चित हुए। शुंग-कुषाणकाल में मथुरा में ही श्रीवत्स और ध्यान मुद्रा का भी अंकन प्रारम्भ हुआ। मथुरा में ही कुषाण काल में सर्वप्रथम जिन मूर्तियों में अष्ट प्रतिहार्यों, धर्मचक्र, मांगलिक चिह्नों (स्वस्तिक, मत्स्ययुगल, श्रीवत्स, पूर्णघट) एवं उपासकों आदि का अंकन हुआ। कुषाणकालीन जिन मूर्तियों के प्रतिहार्य-सिंहासन, प्रभामण्डल, चामरधर सेवक, उड्डीयमान मालाधर, छत्र, चैत्यवृक्ष एवं दिव्यध्वनि हैं। गुप्तकाल में जिनों के साथ सर्वप्रथम लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों का अंकन प्रारम्भ हुआ। राजगिर एवं भारतकला भवन, वाराणसी (क्रमांक परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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