Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 23
________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन (वाराणसी) से मिली परवर्ती शुंग काल की एक त्रिमुख यक्ष मूर्ति में तीन दिशाओं में तीन स्थान पर यक्ष मूर्तियाँ बनी हैं : द्रष्टव्य, अग्रवाल, वी. एस., भारतीय कला, वाराणसी १९७७, पृ. २६७-६८; अग्रवाल, पी. के. 'दि ट्रिपल यक्ष स्टैचू फाम राजधाट', छवि, वाराणसी, १९७१, पृ. ३४०-४२ ।। ४२. वी. एस. अग्रवाल ने स्वस्तिक को चार दिशाओं का सूचक माना है । अग्रवाल ने ब्रह्मा के चार मुखों को चार दिशाओं का मूर्त रूप माना है, जिससे स्वस्तिक का रूप संपन्न होता था । अशोक के सारनाथ सिंहशीर्ष स्तम्भ में चार दिशाओं में चार सिंह आकृतियाँ बनी हैं : द्रष्टव्य, अग्रवाल, वी. एस., पूर्व निविष्ट, पृ. ३३६, ३४३ । ४३. द्रष्टव्य, शाह, यू. पी. 'यक्षज वरशिप इन अर्ली जैन लिट्रेचर', 'जर्नल ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट', खं. ३, अं. १, सितम्बर १९५३, पृ. ६१-६२ । ४४. जैन ग्रंथों के आधार पर २४ यक्ष एवं यक्षियों की सूचियाँ निम्नलिखित हैं : गोमुख चक्रेश्वरी (या अप्रतिचक्रा), महायक्ष-अजिता (रोहिणी), त्रिमुख-दुरितारी (प्रज्ञप्ति), यक्षेश्वर (या ईश्वर)-कालिका (या वज्रशृंखला), तुम्बरु (या तुम्बर)-महाकाली (पुरुषदत्ता), कुसुम (या पुष्प)-अच्युता (या मनोवेगा), मातंग (या वरनन्दि)-शान्ता (या काली), विजय (या श्याम)-भृकुटि (या ज्वालामालिनी), अजित-सुतारा (या महाकाली), ब्रह्मअशोका (या मानवी), ईश्वर-मानवी (या गौरी), कुमार-चण्डा (या गान्धारी), षण्मुख (या चतुर्मुख)-विदिता (या वैरोटी) पाताल-अंकुशा (या अनन्तमती), किन्नर-कन्दर्पा (या मानसी), गरुड-निर्वाणी (या महामानसी), गन्धर्व-बला (या जया), यक्षेन्द्र (या (खेन्द्र)-धारणी (या तारावती), कुबेर (या यक्षेश)-वैरोट्या (या अपराजिता), वरुण-नरदत्ता (या बहुरूपिणी), भृकुटि-गान्धारी (या चामुण्डा) गोमेध-अम्बिका (या आम्रा या कुष्माण्डिनी), पार्श्व (या धरण)-पद्मावती एवं मातंग-सिद्धायिका (या सिद्धायिनी)। ४५. द्रष्टव्य, शाह, यू. पी. 'इण्ट्रोडक्शन ऑव शासन देवताज इन जैन वरशिप' 'प्रोसिडिग्स एण्ड ट्रान्जेक्शन्स ऑव दि आल इण्डिया ओरियण्टल काफरेन्स, २०वाँ अधिवेशन, भुवनेश्वर, अक्टूबर १९५९, पृ. १५१-५२; भट्टाचार्य, बेनायतोश, दि इंडियन बुद्धिस्ट आइकानोग्राफी, कलकत्ता, १९६८, पृ. ५६, २३५, २४०, २४२, २९७; बनर्जी, जे. एन. दि डीवलप मेण्ट ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ. ५६१-६३ । ४६. द्रष्टव्य, ब्रुन, क्लाज, दि जिन इमेजेज ऑव देवगढ़, सिडेन, १९६९, पृ. ९८-११२; मित्रा, देबला, 'शासन देवीज इन दि खण्डगिरि केन्स,' जर्नल एशियाटिक सोसाइटी, खं. १, अं. २, १९५९, पृ. १३०-३३ । ४७. द्रष्टव्य, शाह, यू. पी. 'ब्रह्मशांति ऐण्ड कपर्दी यक्षज', जर्नल एम. एस. यूनिवसिटी, बड़ौदा, खं. ७, अं. १, मार्च १९५८, पृ. ५९-७२ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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