Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 9
________________ ४६ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन स्पष्टतः हिन्दू प्रभाव दरशाती हैं। इसी मन्दिर के उत्तरी और दक्षिणी शिखर पर कामक्रिया में रत दो युगल भी आमूर्तित हैं। काम क्रिया से सम्बन्धित या आलिंगन मुद्रा में साधुओं के कुछ अंकन भी देवगढ़ के जैन मन्दिरों के प्रवेश द्वारों पर उपलब्ध हैं। उपर्युक्त दिगम्बर स्थलों के अतिरिक्त नाडलाई (पाली, राजस्थान) के के शांतिनाथ मन्दिर (श्वेताम्बर) के अधिष्ठान पर भी कामक्रिया में रत कई युगलों का अंकन हुआ है। जैन मन्दिरों पर देवताओं की शक्ति सहित आलिंगन मूर्तियाँ एवं कामक्रिया से सम्बन्धित अंकन परम्परा सम्मत नहीं हैं। जैन धर्म उदार धर्म रहा है। जिसकी धार्मिक मान्यताओं में समय के अनुरूप कुछ आवश्यक परिवर्तन या शिथिलन होते रहें हैं। मध्य युग तांत्रिक प्रभाव का युग था । फलतः जैन धर्म में भी उस प्रभाव को किंचित् नियन्त्रण के साथ स्वीकार किया गया, जिसे कला में भी उपर्युक्त स्थलों पर अभिव्यक्ति मिली। पर इस प्रभाव को उद्दाम नहीं होने दिया गया जैसा कि खजुराहो और उड़ीसा के हिन्दू मन्दिरों पर कामक्रिया से सम्बन्धित अंकनों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। जैन ग्रंथ हरिवंशपुराण (जिनसेन कृत, ७८३ ई.) में एक स्थल पर उल्लेख है कि सेठ कामदत्त ने एक जिनमन्दिर का निर्माण किया और सम्पूर्ण प्रजा के आकर्षण के लिए इसी मन्दिर में कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी। ग्रंथ में यह भी उल्लेख है कि यह जिन मन्दिर कामदेव के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है और कौतुक-वश आये लोगों को जिन धर्म की प्राप्ति का कारण है। जिन मूर्तियों के पूजन के साथ ग्रंथ में रति और कामदेव की मूर्तियों के पूजन का भी उल्लेख है ।१ हरिवंशपुराण का उल्लेख स्पष्टतः जैन धर्म में आये शिथिलन और उसके उद्देश्य को स्पष्ट करता है। . पाँचवीं शती ई. के अन्त तक जैन देवकुल का मूल स्वरूप निर्धारित हो गया था, जिसमें २४ जिन, यक्ष और यक्षियाँ, विद्याएँ, सरस्वती, लक्ष्मी, कृष्ण, बलराम, राम, नैगमेषी एवं अन्य शलाकापुरुष तथा कुछ देवता सम्मिलित थे। इस काल तक जैन देवकुल के सदस्यों के केवल नाम और कुछ सामान्य विशेषताएँ ही निर्धारित हुई। उनकी लाक्षणिक विशेषताओं के विस्तृत उल्लेख आठवीं से बारहवीं-तेरहवीं शती ई. के मध्य के जैन ग्रंथों में ही मिलते हैं। पूर्ण विकसित जैन देवकुल में २४ जिनों एवं अन्य शलाकापुरुषों33 सहित २४ यक्ष-यक्षी युगल, १६ महाविद्याएँ, दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, गणेश, ब्रह्मशांति यक्ष, कपदि यक्ष, बाहुबली, ६४ योगिनी, शांतिदेवी, जिनों के माता-पिता एवं पंच परमेष्ठी आदि सम्मिलित हैं । श्वेतांबर और दिगम्बर संप्रदायों के ग्रंथों में जैन देवकुल का विकास बाह्य दृष्टि से समरूप है । केवल देवताओं के नामों परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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