Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 12
________________ '४९ जैन कला का अवदान के विवाह और वैराग्य, मुनिसुव्रत के जीवन की अश्वावबोध और शकुनिका विहार की कथाएँ तथा पार्श्वनाथ एवं महावीर के पूर्वजन्म की कथाएँ और तपस्या के समय उपस्थित उपसर्ग मुख्य हैं। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के दिगम्बर स्थलों पर मध्ययुग में नेमिनाथ के साथ उनके चचेरे भाइयों बलराम और कृष्ण (देवगढ़, मथुरा), पार्श्वनाथ के साथ सर्पफणों के छत्र वाले चामरधारी धरण एवं छत्रधारिणी पद्मावती, तथा जिन मूर्तियों के परिकर में बाहुबली, जीवन्तस्वामी, क्षेत्रपाल, सरस्वती, लक्ष्मी आदि के अंकन विशेष लोकप्रिय थे। बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल की जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षी युगलों, सिंहासन, धर्मचक्र, गजों, दुन्दुभिवादकों आदि का अंकन लोकप्रिय नहीं था। लगभग दशवीं शती ई० में जिन मूर्तियों के परिकर में २३ या २४ छोटी जिन मूर्तियों का अंकन प्रारम्भ हुआ । बंगाल की छे.टी जिन मूर्तियाँ अधिकांशतः लांछनों से युक्त हैं। जेन ग्रंथों में द्वितीर्थी एवं त्रितीर्थी जिन मूर्तियों के उल्लेख नहीं हैं। पर देवगढ़ एवं खजुराहो जैसे दिगम्बर स्थलों पर नवीं से बारहवीं शती ई. के मध्य इनका उत्कीर्णन हुआ। इन मूर्तियों में दो या तीन अलग-अलग जिनों को कायोत्सर्ग मुद्रा में एक साथ निरूपित किया गया है। इन जिनों के साथ कभी-कभी लांछनों, यक्षयक्षी युगलों एवं अष्टप्रातिहार्यों का चित्रण हुआ है। जिन चौमुखी या सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियों का उत्कीर्णन पहली शती. ई. में मथुरा में प्रारम्भ हुआ, और आगे की शताब्दियों में भी सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा । प्रतिमा सर्वतोभद्रिका या सर्वतोभद्र प्रतिमा का अर्थ है वह प्रतिमा जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी है।चौमुखी मूर्तियों में चार दिशाओं में चार ध्यानस्थ या कायोत्सर्ग जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण होती हैं। जिन चौमुखी की धारणा को विद्वानों ने जिन समवसरण की प्रारम्भिक कल्पना पर आधारित और उसमें हुए विकास का सूचक माना है ।३९ पर इस प्रभाव को स्वीकार करने में कई कठिनाइयाँ हैं । समवसरण वह देवनिर्मित सभा है, जहाँ कैवल्य प्राप्ति के बाद जिन अपना उपदेश देते हैं। समवसरण तीन प्राचीरों वाला भवन है, जिसके ऊपरी भाग में अष्टप्रातिहार्यों से युक्त जिन ध्यानमुद्रा में (पूर्वाभिमुख) विराजमान होते हैं। सभी दिशाओं के श्रोता जिन का दर्शन कर सकें, इस उद्देश्य से व्यंतर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में भी उसी जिन की प्रतिमाएँ स्थापित की। यह उल्लेख सर्वप्रथम आठवींनवीं शती ई. के जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में चार दिशाओं परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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