Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 17
________________ ५४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन में ही परंपरा का कुछ पालन किया गया है। कुछ यक्षियों के निरूपण में ब्राह्मण एवं बौद्ध देवकुलों की देवियों के लक्षणों का अनुकरण किया गया है। शांतिनाथ, अरनाथ, एवं नेमिनाथ की यक्षियों के निरूपण में क्रमशः गजलक्ष्मी, तारा (बौद्ध देवी) एवं हंसवाहिनी ब्रह्माणी (त्रिमुख) के प्रभाव स्पष्ट हैं। अन्य यक्षियां किसी स्थानीय परंपरा से निर्देशित रही हो सकती हैं। जैन शिल्प में २४ जिनों के अतिरिक्त अन्य शलाकापुरुषों में से केवल बलराम कृष्ण, राम और भरत की ही मूर्तियाँ मिलती हैं। बलराम और कृष्ण के अंकन दसवीं-बारहवीं शती ई. में हुए । ये मूर्तियाँ देवगढ़, खजुराहो, मथुरा एवं आबू से मिली हैं। श्रीलक्ष्मी ओर सरस्वती के उल्लेख प्रारंभिक जैन ग्रंथों में हैं। सरस्वती का अंकन कुषाण युग में ( राज्य संग्रहालय लखनऊ, जे. २४, १३२ ई.) और श्रीलक्ष्मी का अंकन दसवीं शती ई. में हुआ । जैन परंपरा में इन्द्र की मूर्तियाँ ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई. में बनीं । प्रारंभिक जैन ग्रंथों (अन्तगडदशाओ आदि) में उल्लिखित नैगमेषी की मूर्तियाँ कुषाणकाल में बनीं। शांतिदेवी, गणेश, ब्रह्मशांति एवं कहि यक्षों के उल्लेख और उनकी मूर्तियाँ दसवीं से बारहवीं शती ई. के मध्य की हैं। जैन परंपरा में गणेश के लक्षण पूर्णतः हिन्दू परंपरा से प्रभावित हैं। गणेश की स्वतंत्र मूर्तियाँ ओसिया की जैन देवकुलिकाओं, कुंभारिया के नेमिनाथ और नडलई के जैन मंदिरों से प्राप्त होती हैं। ब्रह्मशांति एवं कपदि यक्षों के स्वरूप क्रमशः ब्रह्मा और शिव से प्रभावित हैं। जैन परंपरा में ऋषभनाथ के पुत्र गोम्मटेश्वर बाहुबली एवं भरत चक्रवर्ती को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है । श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही परंपरा के ग्रंथों में भरत और बाहुबली के युद्ध और बाहुबली की कठोर तपश्चर्या के विस्तृत उल्लेख हैं। शिल्प में दिगंबर स्थलों पर इनका अंकन अधिक लोकप्रिय था। उसमें भी दक्षिण भारत के दिगंबर स्थलों पर इनकी सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। दिगंबर स्थलों पर छठी-सातवीं शती ई. में बाहुबली का निरूपण प्रारंभ हो गया था, जिसके उदाहरण बादामी और अयहोल में हैं। दोनों परंपरा की मूर्तियों में बाहुबली को कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है और उनके हाथों और पैरों में माधवी की लताए लिपटी हैं। साथ ही शरीर पर सर्प, वृश्चिक और छिपकली आदि का, और समीप ही वाल्मीक से निकलते सर्यों का प्रदर्शन हुआ है । ये सभी बातें बाहुबली की कठोर तपस्या के भाव को ही व्यक्त करती हैं । बाहुबली की इस कठिन तपश्चर्या के कारण ही खजुराहो एवं देवगढ़ में उन्हें जिनों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गई। इन स्थलों पर जिन मूर्तियों के समान ही बाहुबली परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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