Book Title: Jain Kala Ka Avdan
Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 6
________________ जैन कला का अवदान जिसमें नीचे लटकती दोनों भुजाएँ भी सुरक्षित हैं। जैन परंपरा के अनुसार जैन धर्म को लगभग सभी समर्थ मौर्य शासकों का समर्थन प्राप्त था। चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्मानुयायी होना तथा जीवन के अंतिम वर्षों में भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत जाना सुविदित है । १९ अर्थशास्त्र में जयन्त, वैजयन्त, अपराजित एवं अन्य जैन देवों की मूर्तियों का उल्लेख है ।२. अशोक ने भी निर्ग्रन्थों एवं आजीविकों को दान दिये थे।२१ संप्रति को भी जैन धर्म का अनुयायी कहा गया है ।२२ । उदयगिरि (पुरी, उड़ीसा) स्थित हाथी गुम्फा के एवं पहली शती ई. पूर्व के खारवेल के लेख में भी जिन प्रतिमा का उल्लेख आया है। लेख में उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज 'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः वापस ले आया। 'तिवससत' शब्द का अर्थ अधिकांश विद्वान ३०० वर्ष मानते हैं ।२३ अतः खारवेल के लेख के आधार पर भी जिन मूर्ति की प्राचीनता चौथी शती ई. पूर्व तक जाती है । इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाण मौर्यकाल में निश्चित रूप से जैन धर्म में मूर्तिपूजन की विद्यमानता की सूचना देते हैं। लोहानीपुर की मौर्यकालीन जिन मूर्ति इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह भी उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त जिन मूर्ति सभी धर्मों में आराध्य देवों की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति भी है। जैन धर्म में मौर्यकाल में मूर्ति निर्माण की जो परंपरा प्रारंभ हुई, उसका आगे की शताब्दियों में पल्लवन और पुष्पन हुआ। दूसरी-पहली शती ई. पू. की कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्वस्त्र पार्श्वनाथ की दो कांस्य मूर्तियां मिली हैं, प्रथम प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बंबई में और दूसरी बक्सर के चौसा ग्राम (भोजपुर, बिहार) से प्राप्त पटना संग्रहालय में सुरक्षित है ।२४ इन मूर्तियों में पार्श्वनाथ के सिर पर पांच और सात सर्पफणों के छत्र हैं। मथुरा से लगभग पहली शती ई. पू. के जैन आयागपटों के उदाहरण मिले हैं। आयागपट उस संक्रमण कालकी शिल्प सामग्री है, जब उपास्य देवों का पूजन प्रतीक और मानवरूप में साथ-साथ हो रहा था ।२५ इन आयागपटों पर जैन प्रतीकों२६ के साथ ही जिन मूर्ति भी उत्कीर्ण हई। लगभग पहली ई. पू. के एक आयागपट (राज्य संग्रहालय, लखनऊ, क्रमांक जे. २५३) पर सात सर्पफणों के छत्र युक्त पार्श्वनाथ की ध्यानस्थ मूर्ति बनी है। ___ चौसा (बिहार) और मथुरा (उ. प्र.) से शुंग-कुषाण काल की पर्याप्त जैन मूर्तियाँ मिली हैं। मथुरा से ल. १५० ई. पू. से ग्यारहवीं शती ई. के मध्य की प्रभूत जैन मूर्तियाँ मिली हैं। ये मूर्तियाँ आरम्भ से मध्य युग तक के प्रतिमा विज्ञान की परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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