Book Title: Jain Kala Ka Avdan Author(s): Marutinandan Prasad Tiwari Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 2
________________ जैन कला का अवदान हैं ।' साथ ही ओसिया, खजुराहो, जालोर एवं मध्ययुगीन अन्य अनेक स्थलों के मूर्तिलेखों से भी इसी बात को पुष्टि होती है । ल. आठवीं से बारहवीं शती ई. के मध्य उत्तर भारत में जैन कला के प्रभूत विकास के मूल में भी इस क्षेत्र की सुदृढ़ आर्थिक पृष्ठभूमि का ही महत्त्व था । गुजरात के भड़ौंच, कैंबे और सोमनाथ जैसे व्यापारिक महत्त्व के बन्दरगाहों, राजस्थान के पोरवाड़, श्रीमाल, मोठेरक जैसी व्यापारिक जैन जातियों एवं मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विदिशा, उज्जैन, मथुरा, कौशाम्बी, वाराणसी जैसे महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थलों के कारण ही इन क्षेत्रों में अनेक जैन मन्दिर एवं विपुल संख्या में मूर्तियाँ बनीं। जैन कला स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से कुषाण, गुप्त, प्रतिहार, चन्देल और चौलुक्य राजवंशों का शासन काल विशेष महत्त्वपूर्ण था । इन राजवंशों के काल में उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मथुरा, देवगढ़, अकोटा, खजुराहो, ओसिया, ग्यारसपुर, कुमारिया, आबू, जालोर, तारंगा, नवमुनि - बारभुजी गुफाएँ एवं अन्य महत्त्वपूर्ण जैन कलाकेन्द्र पल्लवित और पुष्पित हुए । कला की दृष्टि से उत्तर भारत का विविधतापूर्ण अग्रगामी योगदान रहा है । जैन परम्परा के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी युग के सभी २४ जिनों ने इसी क्षेत्र में जन्म लिया, यही उनकी कार्यस्थली थी, तथा यहीं उन्होंने निर्वाण भी प्राप्त किया । सम्भवतः इसी कारण प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों की रचना एवं कलात्मक अभिव्यक्ति का मुख्य क्षेत्र भी उत्तर भारत ही रहा । जैन आगमों का प्रारम्भिक संकलन एवं लेखन यहीं हुआ तथा प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रारम्भिक ग्रन्थ, जैसे कल्पसूत्र, पउमचरियं, अंगविज्जा, वसुदेवहिण्डी आदि इसी क्षेत्र में लिखे गये । जैन प्रतिमाविज्ञान के पारम्परिक विकास का प्रत्येक चरण सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में परिलक्षित होता है । जैन कला का उदय भी इसी क्षेत्र में हुआ । प्रारम्भिकतम जिन मूर्तियाँ भी इसी क्षेत्र में बनीं । ये मूर्तियाँ लोहानीपुर (पटना) एवं चौसा (भोजपुर) से मिली हैं । ऋषभनाथ की लटकती जटाओं, पार्श्वनाथ के सात सर्पफण, जिनों के वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न और शीर्ष - भाग में उष्गीस तथा जिन मूर्तियों में अष्टप्रतिहार्यो और दोनों पारम्परिक मुद्राओं ( कायोत्सर्ग एवं ध्यानमुद्रा) का प्रदर्शन सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में हुआ । दक्षिण भारत की जिन मूर्तियों में उष्णीष नहीं प्रदर्शित है । श्रीवत्स चिह्न भी वक्षस्थल के मध्य में न होकर सामान्यतः दाहिनी ओर उत्कीर्ण है । जिन मूर्तियों में लाछनों एवं यक्षयक्षी युगलों का निरूपण भी सर्व प्रथम उत्तर भारत में ही हुआ । दक्षिण भारत के परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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