Book Title: Jain Jyotirloka Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi View full book textPage 7
________________ प्राक्कथन न सम्यक्त्व समं किंचित, काल्ये त्रिजगत्यपि श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-ममं नान्यत् तनूभृतां तीनों लोक में प्रार तीनों कालों में इस मंमारी प्राणी को मम्यक्त्व के ममान हितकारी ( कल्याणकारी) कोई भी वरत नहीं है और मिथ्यान्व के मदग अकल्याणकारी कोई भी पदार्थ नहीं है । तात्पर्य यह है कि मम्यक्त्व दिन अवस्था के कारण ही यह जीव अनादि काल में नमार में परिभ्रमण कर रहा है। सम्यक्त्व रूपी रत्न मिल जाने के बाद इस जीव का नमार मीमित (अर्द्ध पद्गल पगवर्तन मात्र) रह जाता है। सम्यक्त्व के होने पर जीव में ८ गृण प्रगट होते हैं। (१) प्रगम (२) संवेग (३) अनुकम्पा ( ४ ) ग्राम्निक्य । कपायों की मंदना को प्रगम भाव कहते हैं । समार, गरीर एवं भोगों में विरक्त होना मवेग है। प्राणीमात्र के हित की भावना अनुकम्पा है। जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित जिनधर्म, जिनवाणी में निःगंक होकर श्रद्धान रखना आस्तिक्य है। जैसे:-जिनश्वर ने स्वर्ग, नरक, मुमेरु आदि का वर्णन किया है। हम इन स्थानों को वर्तमान में प्रत्यक्ष नहीं देख सकते किन्तु फिर भी आस्तिक्य भावों से उनकी वाणी पर अटूट श्रद्धा होने से दिव्यध्वनि प्रणीत पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। क्योंकि जिनेन्द्र भगवान ने घातिया कर्मों के प्रभाव से प्रगट केवलज्ञान के द्वारा तीनोंPage Navigation
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