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ॐ प्रहन्नमः
जैन-जगती अतीत खण्ड
मङ्गलाचरण हे शारदे ! उर-वीण पर तू कमल-पाणि पसार दे सब हो रहे हैं तार बेस्वर-प्राण इनमें डार दे । मैं बदन-सरवर-मुख-कमल पर सुमन-आसन डार दूं; तू मन-मनोरथ सार दे तन, मन, वचन, उपहार दूं ॥१॥
लेखनी पारस-विनिर्मित लेखनी ! मुक्ता-मसी मैं घोल दूँ; कल हंस मानस चित्र दे-हृद् सार अपना खोल दूँ । यह यान हो, पिक-तान हो, वीणा मनोरम पाणि होः अरविंद-उर तनहार हो, 'अरविंद' पर वर पाणि हो ॥२॥
उपक्रमणिका किसका रहा वैभव बताओ एकसा सब काल में; जो था कभी उन्नत वही बिगड़ा-हुआ है हाल में। इस दुर्दिवस में वह कथा हे लेखनी ! लिखनी तुझे; पापाण-उर हम हो गये, उर पन करना है तुझे ॥३॥