Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 3
________________ बारहवाँ भाग । अंक ९-१० Jain Education International हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । जैनहितैषी । RARARARARARARARARA सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहै कोउ द्वेषी । प्रेमसौंपा स्वधर्म सभी, रहें सत्य के साँचे स्वरूप गवेषी ॥ बैर विरोध न हो मतभेदतैं, हों सबके सब बन्धु शुभैषी । भारत के हित को समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ ENBUCNBNOVYUOND भद्रबाहु -संहिता । ( ग्रन्थ- परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख । ) [ ले०-श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ] जैन समाजमें, भद्रबाहुस्वामी एक बहुत प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । आप पाँचवें श्रुतकेवली थे । श्रुतकेवली उन्हें कहते हैं जो संपूर्ण द्वादशांग श्रुतके पारगामी हों - उसके अक्षर अक्षरका जिन्हें यथार्थ ज्ञान हो । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि तीर्थंकर भगवानकी दिव्य ध्वनि द्वारा जिस' ज्ञान-विज्ञानका उदय होता है उसके अविकल ज्ञाताओंको श्रुतकेवली कहते हैं । आगम में संपूर्ण पदार्थों के जाननेमें केवली और श्रुतकेवली दोनों ही समान रूपसे निर्दिष्ट हैं । भेद है १-२ भाद्र, आश्विन २४४२ सितम्बर, अक्टू०१९१६. सिर्फ प्रत्यक्ष-परोक्षका या साक्षात् - असाक्षात्का । केवली अपने केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जानते हैं और श्रुतकेवली अपने स्याद्वादालंकृत श्रुतज्ञान द्वारा उन्हें परोक्ष रूप से अनुभव करते हैं। जैसा कि स्वामि समन्तभद्रके इस वाक्यसे प्रगट है: स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाश | भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १० ॥ -आप्तमीमांसा । जैनियोंको, भद्रबाहुकी योग्यता, महत्ता, और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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