Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ साधारणतया अर्थ - किसी भी द्रव्य को ऐसा स्वरूप देना जिसके द्वारा वह पूर्णतः उपयोगी बन सके। भारतीय संस्कृति में जीव के माता के गर्भ में प्रवेश के साथ ही संस्कारों का क्रम प्रारंभ हो जाता है। स्व. आचार्य श्री जिन महोदयसागर सूरिश्वर जी म.सा. की अंतरंग अभिलाषा थी, कि आचारदिनकर ग्रन्थ का राष्ट्र भाषा (हिन्दी) में अनुवाद सह विश्लेषण हो। आज मन प्रसन्नता से सरोबार है कि पूज्यपाद आचार्य भगवंत के भावों को साकार रूप देने में आदरणीय प्रवर्तिनी महोदया स्व. श्री विचक्षण श्री जी म. की प्रशिष्या यथा नाम तथा गुण संपन्ना विदुषी आर्या हर्षयशा श्री जी म. की अन्तेवासिनी विद्याभिलाषी साध्वी मोक्षरत्ना श्री जी म. ने आचारदिनकर जैसे ग्रन्थ के अनुवाद एवं परिशोधन के कार्य का शुभारंभ किया है। उनका यह कार्य अभिनंदनीय एवं स्तुत्य है। अति अल्प समय में बहुमुखी प्रतिमा के धनी, विविध दर्शनों के ज्ञाता डॉ. सागरमल जी जैन साहब के दिशा-निर्देशन में साध्वी श्री जी ने गृहस्थ जीवन के सोलह संस्कार सम्बन्धी प्रथम भाग का अनुवाद कर उसका प्रकाशन करवाने जा रही है। आपका यह प्रयत्न रत्नत्रय की साधना को परम विशुद्ध बनाए एवं जन-हितार्थ बने ऐसी शुभभावना है। आशा है कि यह प्रकाशन जन-जन के हृदय को सुसंस्कृत कर प्रत्येक आत्मा को कल्याण की दिशा में अग्रसर करेगा। आप शेष कार्य भी शीघ्र पूर्णकर प्रकाशित करवाए यही मंजुल शुभेच्छा। नयापारा, राजिम 31 अगस्त 2005 जिनमहोदयसागरसूरि चरणरज मुनि पीयूषसागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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