Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ अनुमोदनीय एवं स्तुत्य प्रयास मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, सामाजिक इकाई होने के कारण वह समाज में ही रहता है तथा जीता है। समाज में मनुष्य अपने और अपने साथियों के साथ कैसा व्यवहार करें ? इस का दिग्दर्शन आचार सम्बन्धी विधि-निषेधो के माध्यम से ही ज्ञात हो सकता है। आचार ही श्रेय-अश्रेय, शुभ -अशुभ, कुशल - अकुशल का औचित्य - अनौचित्य, मानदण्ड होता है। आचार के सम्यक् अध्ययन के अभाव में न तो जीवन के आदर्श का बोध संभव है, न उसकी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। भगवान महावीर का उद्घोष है "आचारः प्रथमो धर्मः" आचार ही धर्म की आधार शिला है। मानव जीवन में आचरण सम्बन्धी विवेक ही व्यक्ति के ज्ञान का परिचायक होता है। अतः व्यवहारिक व आध्यात्मिक जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु आचार - मार्ग का पालन नितांत अनिवार्य है । ज्ञान एवं आचार को मुख्यता देने वाली तथा चैत्यवासी परंपरा के विरूद्ध सर्वप्रथम क्रांति का शंखनाद करने वाली खरतरगच्छीय परंपरा की रुद्रपल्लीय शाखा के बारहवें पट्टधर श्री जयानंद सूरि के प्रखर शिष्य श्री वर्द्धमानसूर ने वि.सं. 1468 में जालन्धर अपरनाम नंदनवनपुर (पंजाब) में 12500 संस्कृत श्लोकों एवं प्राकृत गाथाओं में आचारदिनकर नामक ग्रंथ की रचना की है। जैन धर्म की आचार प्रणाली को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने में 'आचारदिनकर' का महत्वपूर्ण अवदान है । आचारदिनकर ग्रंथ मुख्य रूप से दो भाग में विभक्त है। प्रथम भाग में गृहस्थ एवं मुनियों के क्रमशः सोलह-सोलह संस्कारों का विस्तृत उल्लेख है। दूसरे भाग में गृहस्थ एवं साधु दोनों से सम्बन्धित आठ संस्कारों का वर्णन है । विधि-विधान की यह अनमोल कृति सर्वोत्तम है और सर्वमान्य है । आज भी प्रतिष्ठा - विधि, प्रायश्चित - विधि, आवश्यक - विधि आदि समस्त विधि-विधान श्वेताम्बर परम्परा के समस्त गच्छों में इसी को आधार बनाकर किए जाते है । - किसी भी गौरवशाली संस्कृति की आधार शिला संस्कार है। जिस समाज के सदस्यों के संस्कार जितने परिपक्व होंगे, उनकी संस्कृति उतनी ही अनुकरणीय होगी। संस्कार मन और मस्तिष्क का परिमार्जन करते है । संस्कार ही शरीर एवं चेतना को सजाते और संवारते है। संस्कार शब्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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