Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 7
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिद्धान्तलोक में फैले हुए हैं। अब समय श्री गया है कि विश्व का संरक्षण उनके पाचन सिद्धान्तों के प्राचरण से ही हो सकता है * इस युग में परमाणु की अनन्त शक्ति और उनकी दाहकता की विभीषिका से लोक भयभीत हैं, दुःखी और चिन्ता ग्रस्त हैं। उससे यदि विश्व को संरक्षित करना है तो महावीर के ग्रहिंसा और अनेकान्त आदि सिद्धान्तों को जीवन में प्रवाहित करना होगा, उनको जीवन के व्यवहार में लाये बिना विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । क्योंकि साम्राज्य की लिप्सा और बहुकार ने मानवता का तिरस्कार और दुरुपयोग किया है। और किया जा रहा है जिसका परिणाम प्रशान्ति और विनाश है । महात्मा बुद्ध के समय भगवान महावीर को 'णिग्गंठ णात पुत्र' कहा जाता था, और उनका शासन भी 'निरगंठ' नाम से प्रसिद्ध था । अशोक के शिलालेखों में भी 'गिंठ नाम से उसका उल्लेख है। महावीर के बाद ''णिगठ' श्रमण परम्परा द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षादि के कारण दो भेदों में विभक्त हो गई। एक निम्ठ श्रमण संघ दूसरा श्वेतपट श्रमण संघ । इन दो भेदों का उल्लेख कदम्ब वंश के लेखों में मिलता है । भग पश्चात् निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ हो मूल संघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ । मूलबंध परम्परा वान महावीर की निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा है, दूसरी परम्परा मूल परम्परा नहीं कही जा सकती। इसी से इस ग्रन्थ में भगवान महावीर की मूल निर्ग्रन्थ संघ परम्परा के आचार्यों व विद्वानों, भट्टारको और कवियों का यहां परिचय दिया गया है। दूसरी परम्परा के सम्बन्ध में फिर कभी विचार किया जायेगा। इस परम्परा की प्रतिष्ठा कुन्दकुन्दाचार्य जैसे नियंन्थ श्रमणों से हुई। उनकी कृतियां वस्तु तत्व की निदर्शक और लोक कल्याणकारी हैं । उनकी समता अन्यत्र नहीं पायी जाती। इस परम्परा में अनेक महान आचार्य हुए, जिनकी कृतियां लोक में प्रसिद्ध हुई । दार्शनिक विद्वानों में गृद्धपिच्छाचार्य, समन्तभद्र, पात्र केसरी, सिद्धसेन, पूज्यवाद, अकलंक देव, सुमतिदेव और विद्यानन्दादि महान प्राचार्य हुए। जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक में श्रमण संस्कृति का प्रसार हुआ। इस परम्परा में भी अनेक संघ भेद हुए, गण-गच्छादि हुए, परन्तु मूल परम्परा बराबर संरक्षित रही, और रह रही है। भारतीय इतिहास में शिलालेख ताम्र पत्र लेखक प्रशस्तियां, ग्रन्थ प्रशस्तियां, पट्टावलियां और मूर्तिलेखों की महत्ता से कोई इंकार नहीं कर सकता। इनमें उपलब्ध साधन सामग्री इति वृत्तों के लिखने में सहायक ही नहीं होती । प्रत्युत अनेक उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने में योगदान देती है। जैन साहित्य और इतिहास के लिखने में उनकी उपयोगिता लिये बिना किसी आचार्य विशेष, विद्वान कवि या भट्टारक, राजा आदि का परिचय लिखना सम्भव नहीं होता । इसी से इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन होना श्रावश्यक है। इसके साथ पुरातत्त्व संबंधो अवशेषों आदि का उल्लेख भी श्रावश्यक होता है। उससे उसमें प्रामाणिकता आ जाती है। जब हम किसी प्राचार्य विशेष आदि का परिचय लिखने बैठते हैं तब समुचित सामग्री के संकलन के प्रभाव में एक नाम के अनेक विद्वानों आदि के समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है । तब हमें उक्त सामग्री की उपयोगिता की महत्ता ज्ञात होती है और हम उसके संकलन की आवश्यकता का अनुभव करते हैं । विद्वान इस कठिनाई का अनुभव करते हुए भी उसके संकलन का प्रयत्न नहीं कर पाते, समाज और श्रीमानों का तो उस ओर ध्यान ही नहीं है। विद्वानों के सामने अनेक समस्याएं हैं, जिनके कारण उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाते । उनमें सबसे पहला कारण प्रभाव है दूसरा कारण गृही समस्याएं हैं श्रीर तीसरा कारण सामग्री की विरलता और समय की कमी है। यद्यपि वर्तमान में ऐतिहासिक विद्वानों के समक्ष बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है । कुछ प्रकाश में ग्रा चुकी हैं, कुछ प्रकाश में लाने के प्रयत्न में है। और अधिकांश सामग्री ग्रन्थ भण्डारों, मूर्ति लेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में निहित है । श्रतएव इतिवृत्तों की सामग्री का संकलित होना अत्यन्त आवश्यक है । इसी आवश्यकता को देखते हुए मेरा विचार बहुत दिनों से महावीर संघ परम्परा के कुछ प्राचार्या, विद्वानों, भट्टारकों, कवियों आदि का जैसा कुछ भी परिचय मिलता है, संकलित करने की भावना चल रही १. इंडियन एण्टी वे ०६० ३७-३८

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