Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 3
________________ ७ कपिल, ८ वामन, ६ उशनस, १० ब्रह्माण्ड, ११ वरुण, १२ कालिका, १३ महेश्वर, १४ साम्ब, १५ सौर, १६ पराशर, १७ मारीच और १८ भार्गव । इनके अतिरिक्त और भी अनेक पुराण उपलब्ध हैं। इतिहासकार इनका निर्माण-काल ईसा की तीसरी से पाठवीं शताब्दी मानते हैं। कुछ विद्वान रामायण और महाभारत की भी गणना पुराण साहित्य में करते हैं। जैन धर्म में वैदिक धर्म की तरह पुराणों और उपपुराणों का विभाग नहीं मिलता। जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में पुराण साहित्य विपुल परिमाण में मिलता है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में पुराण नामक साहित्य का प्रभाव है। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत, अपभ्रश और कन्नड़ भाषा में ज्ञात पुराणों की संख्या ५० से ऊपर है जिनमें भगवज्जिनसेन का मादि पुराण, प्राचार्य गुणभद्र का उत्तर पुराण, प्राचार्य जिनसेन का हरिवंश पुराण, प्राचार्य रविषेण का पदम पुराण सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त कवि पंप का आदि पुराण (कन्नड), महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण (मपभ्रंश), कविवर रइधू का पद्म पुराण (अपभ्रंश) और कवि स्वयम्भू का पउमचरिय (मपभ्रंश) भी साहित्य जगत में गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। जैन वाङ्मय को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिन्हें चार अनुयोग कहा जाता है। उनके नाम इस प्रकार है-द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रथमानुयोग । इनमें प्रथमानुयोग में पुराण, माख्यायिका, कथा पौरपरित ग्रन्थ सम्मिलित हैं। जैन साहित्य में प्रथमानुयोग संबंधो ग्रन्थों की संख्या विपुल परिमाण में है। इन ग्रन्थों में, विशेषतः पुराण ग्रन्थों में प्राचीन राजवंशों और महापुरुषों का इतिहास सुरक्षित है। इसलिए यह कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिये जन पुराणों और कथा ग्रन्थों से बड़ी सहायता प्राप्त होती है। जैन पुराणों की अपनी विशिष्ट वर्णन-शैली अवश्य है, किन्तु उसमें इतिहास की जो यथार्थता सुरक्षित है वह नेतर पुराणों में देखने को नहीं मिलती। जैन पुराणों मोर कथा अन्धों की एक विशेषता की भोर विशेष रूप से ध्यान जाता है। उनकी मूल कलावस्तु में विभिन्न लेखकों में कोई उल्लेखनीय मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि जनेतर पुराणों में कथावस्तु में भारी अन्तर और मतभेद दिखाई पड़ते हैं। उसका मुख्य कारण यह है कि भगबान महारीर के पश्चात पाज तक यापार्यों की प्रविच्छिन्न परम्परा रही है। उन्होंने गुरु मुख से जो सुना और अध्ययन किया, उसको उन्होंने अपनी रचना में ज्यों का त्यों गुम्फित कर दिया । इसलिये दिगम्बर मौर श्वेताम्बर पूरानों और मागमों के कथानकों में भी प्रायः एकरूपता मिलती है। इसलिये उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यहां उनको विश्वसनीयता के लिये एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैनेतर पुराणों में हनुमान, नल, नील, जामवन्त, रावण मादिप्रसिद्ध पुरुषों को यानर, री, राक्षम पादि लिखा है, जब कि जंन पुराणों ने उन्हें विद्याधर लिखा है और सरकी जाति का नाम पामर, रीछ, राक्षस मादिदिया है। जैन पुराणो में विद्याघरों और उनके विभिन्न वैज्ञानिक मनुसंधामों और उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। जैन पुराणों में वर्णित इन विद्याधर जातियों की सत्ता प्राचीन काल में बी, इस बात को नवंश विज्ञान और विद्वानों ने सिद्ध कर दिया है। अतः कहा जा सकता है कि अंन पुराण कल्पना प्रौर किम्बदन्तियों पर माधारित न होकर पूर्वाचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा से प्राप्त तथ्यों पर माधारित हैं। धर्म के इतिहास की मावश्यकता किसी धर्म का इतिहास उसके उत्थान-पतन, प्रचार और हास का इतिहास होता है। किन्तु उसका कोई स्वतत्र इतिहास नहीं होता। धर्म कोई मूर्तिमान स्थूल पदार्थ नहीं है। वह तो जोवन के उच्च नैतिक व्यवहार में परितक्षित होता है। धर्म-संस्थापना के दो उपाय है-हृदय-परिवर्तन और दण्ड-भय । धर्मनायक प्रथम उपाय करते हैं, जबकि लोकनायक दूसरा उपाय काम में लाते हैं। जिन्होंने जीवन में धर्म का पूर्ण व्यवहार करके अपने जीवन को धर्ममय बना लिया है और दूसरों को उस धर्म का उपदेश देते हैं, वे धर्म नायक होते हैं। मुख्य धर्मनायक तीर्थकर होते है। वे जन्म-जन्मान्तरों की धर्म साधना द्वारा तीर्थकर जीवन में धर्म के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं। क्योंकि उनके जीवन में किसी प्रकार की मानवीय दुर्बलता, मानसिक, भास्मिक मीर दहिक

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