________________
हैं। फिर भी पाठक उनसे पूर्णतया लाभान्वित नहीं हो सके हैं। क्योंकि या तो अत्यधिक विस्तार हैं या वे अति संक्षिप्त हैं। संस्कृतनिष्ठ भाषा भी उनकी दुहत कारण बनी है। इसके साथ ही जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण तथ्यों को अनावृत करने आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों का समावेश भी उनमें नहीं हो सका है। प्रस्तुत कृति प्रयास की एक कड़ी है ।
प्रस्तुत सृजन में नया कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है वह सब पूर्वाचार्यों की दे ही है। मैंने तो पुरातन आचार्यो की देशना को नूतन आयाम देने का नम्र प्रयत्न मात्र है, जिससे कि आचार्यो की वाणी से सर्वसाधारण लाभान्वित हो सके। मैं अपने प्रयार कितना सफल हो सका इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक ही करेंगे. फिर भी मुझे विश्वास है। यह कृति पूर्वा गर्यो के मूलग्रंथों को हृदयंगम करने में सहायक बनेगी। यदि ऐसा हो र तो मैं अपने प्रयाको सार्थक समझंगा ।
सर्वप्रथम मैं परम पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के चरणों विनयावनत होता हुआ हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं, जिनके कृपापूर्ण आशीष से और कृतिकार का यह स्वरूप बन सका है।
कृति के लेखन में पूर्वाचार्यों के अनेक ग्रंथों का आलंबन है। अतः मैं पूरी आ परंपरा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उन्हें अपनी आस्था का अर्घ्य समर्पित करता इसके साथ ही मै उन सभी आधुनिक विद्वानों का भी आभारी हूं जिनकी खोजूपर्ण पुस्त का आश्रय इस कृति में लिया गया है । प्रस्तुत सृजन में अनेक साधर्मी साधकों जिनवाणी के आराधकों ने अपने मूल्यवान सुझावों से कृति की उपयोगिता को बढ़ाया अतः मैं उनके प्रति भी कृतज्ञ हूं ।
पुस्तक लेखन के क्षेत्र में मेरा यह प्रथम प्रयास है । अतः प्रतिपादनुगत त्रुटियां स संभाव्य है । विज्ञजनों से निवेदन है कि उनका बोध कराते हुए पुस्तक की उपयोगिता बढ़ सहायक बनें।
1