Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 10 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 5
________________ આદિનાથ ચરિત્ર जग परिवार रेन कर वासा, अंत प्रातः सब होत विनासा। जो जगजीव सत्य कर माना, ते भव दुख पावत विधि नाना॥ दुरक्पावत सब निज २ कर्मा, याते जीव करहु सब धर्मा। धर्म देसणा सुनहिं इम, निनार्मीका सुख पाय । करजोडत पुनि यूं कहा, सुनहुं देव गुरु राय ॥ समदर्शी तुम देव कृपाला, मों सम दुखी नहीं जग जाला ॥ यह सुनि मुनि बोले मृदुबानी, चतुर गति दुख कहहुं बखानी । पाप कर्म फल भोगत प्राणी, तोस पिलत नर्क गति घाणी॥ कइ एक देह छेदते दूता, कइ एक गरदन चके करुता। कइ एक ओषधिसम कुट जोव, कइ एक सल सेज पर दावे ॥ का एक पत्थर पटक पछारा, कह एक खंड खंड कर डारा । वक्रिय देह होय तिन प्राणी, कटत जात पुनी होय जुड़ानी ॥ पुनि दुख देत धर्म कर दूता, इमिदुख पावत जीव कपूता । तृखा होय सीसा पिलवावे, ते दुख जीव बहुत चिल्लावे ।। बहुत त्रास पावे तहां, कर्म विधर्मी जीव । जिन वरण नत दुख होतहे, अय वाला धरु धीर । नारकियों की बात, अय बच्ची दूरे रही। प्रत्यक्ष ही दिखलात, सो सब सुनले धीर धर॥ जलचर जलमें करत निवासा, एक एक कर करत विनासा। मास चर्म प्रेमी तिन मारे, निदर्य तासे खाल उपारे॥ थल चरका भी है यह हाला, कइ एक करे शिकार नृपाला। घोड़े बेल अति हि दुख पावे, भूख प्यास मे भार दुवावे ॥ यहि दुख के नभचर अधिकारी, मार भून कर खाय शिकारी। कर. एक पकड पीजरा डाले, अति दुख मय निज जीवन पाले॥ यहि विधि फल सब भोगत प्राणी, पूर्व कर्म नहीं छूटत जानी। नर भव पाय वृथा होजावे, पूर्व जन्म कर पाप भुलावे॥ फिर भी नर नही करत विचारा, दुख मय काटे जीवन सारा। दुनियां में दुख का नहीं पारा, जिमि सागर जल जंतु अगारा॥ मंत्र प्रभाव नास कर नारा, रहता भूत प्रेत कर द्वारा। यहि विधि भवसागर माही, जैन धर्म प्रति कार बसाही ॥.....Page Navigation
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