Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 7
________________ प्रस्तुति __ भारतीय विद्या के मूलस्रोत की खोज आर्य और अनार्य की विभाजन रेखा से पूर्ववर्ती है। उत्तरकालीन साहित्य तथा अनुसंधान सामग्री के आधार पर उस खोज को दो आयामों में विभक्त किया जा सकता है-समण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति । समण संस्कृति का इतिहास इन दो सहस्राब्दियों में परिवर्तन का इतिहास है। परिवर्तन के बाद जो शेष रहा है, उसे दो धाराओं में देखा जा सकता है-जैनधारा और बौद्धधारा। बौद्धधारा का विस्तार पूर्ण विश्व में हुआ है, इसलिए विश्व के लोग भगवान बुद्ध को जानते हैं और बौद्धदर्शन से परिचित हैं। जैनधारा का विस्तार अतीत में विश्व के बहुत भागों में हुआ था। वर्तमान में वह हिन्दुस्तान के अंचलों तक सीमित है। इसलिए विश्व मानस में भगवान आदिनाथ और भगवान महावीर की प्रतिमा अंकित नहीं है और जैन विद्या से भी विश्व परिचित नहीं है। विश्व की समस्या के समाधान में जैन दर्शन के पास अनेकान्त, अहिंसा, अपरिग्रह और महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। कुछ विद्वानों ने उन पर कार्य किया है। इसलिए बहुत लोग जैन विद्या से परिचित होने को उत्सुक हो रहे हैं। इस उत्सुकता की फलश्रुति है प्रस्तुत पुस्तक 'जैन दर्शन के मूल सूत्र।' प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजयकुमार एवं संकलन में मुनि जयकुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। तारानगर आचार्य महाप्रज्ञ 2-2-2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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