Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 12
________________ स्वतन्त्रता, श्रमनिष्ठा, इन्द्रिय जय, आत्म संयम, आन्तरिक वीतरागता, लोककल्याण, वैचारिक औदार्य, विश्वमैत्री, स्वावलम्बन, आत्म जागृति, कर्तव्य परायणता, आत्मानुशासन, अनासक्ति जैसे मूल्यो से जुडी हुई है यही मूल्यवत्ता जैनदर्शन की आधुनिक दृष्टिवत्ता है । आधुनिकता के उपर्युक्त सन्दर्भ मे धर्म मत या सम्प्रदाय वनकर नही रहता । वह आत्मजयता या आत्म स्वभाव का पर्याय बन जाता है। सभ्यता का विकास इन्द्रिय-सुख और विषय-सेवन की ओर अधिकाधिक होने से आत्मा अपने स्वभाव मे स्थित न रहकर विभावाभिमुख होती जा रही है । फलस्वरूप आज ससार मे चहुँ ओर हिंसा, तनाव और विषमता का वातावरण बना हुआ है। विषमता से समता, दुःख से सुख और अशान्ति से शान्ति की ओर वढने का रास्ता धर्ममूलक ही हो सकता है। पर आज का सवसे वडा मकट यही है कि व्यक्ति धर्म को अपना मूल स्वभाव न मानकर, उसे मुखौटा मानने लगा है। धर्म मुखौटा तब बनता है जब वह आचरण में प्रतिफलित नही होता । कथनी और करनी का वढता हुआ अन्तर व्यक्ति को अन्दर ही अन्दर खोखला बनाता रहता है । जव धर्म का यह रूप अधिक उग्र और लोगो की सामान्य अनुभूति का विपय वन जाता है तव धर्म के प्रति अरुचि हो जाती है। लोग उसे अफीमी नशा और न जाने क्या-क्या कहने लग जाते हैं । यह सही है कि इस धर्मोन्माद मे बडे-बडे अत्याचार हुए हैं । विधर्मियो को झूठा ही नही ठहराया गया बल्कि उन्हे प्राणान्तक यातनाएं भी दी गई। जहाँ धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार होते हो, धर्म के नाम पर सामाजिक ऊंच-नीच के विभिन्न स्तर कायम किये जाते हो, धर्म के नाम पर भगवान के प्रागण मे जाने न जाने की, उन्हे छूने न छुने की प्ररूपणा की जाती हो, वह धर्म निश्चय ही एक प्रकार की अफीम है। उसके सेवन से नशा ही आता है। आत्म-दशा की कोई पहचान नही होती। धर्म के नाम पर पनपने वाली इस विकृति को देखकर ही मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा। पर सच्चा धर्म नशा नही है । वह तो नशे को दूर कर आत्म-दशा को शुद्ध और निर्मल बनाने वाला है, सुपुप्त चेतना को जागृत करने वाला है, ज्ञान और आचरण के द्वैत को मिटाने वाला है । (१०)

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