Book Title: Hindi Natakkar Author(s): Jaynath Publisher: Atmaram and Sons View full book textPage 6
________________ पालोक ‘हिन्दी नाटककार' पहले केवल हिन्दी-नाटक-समीक्षा के रूप में ही प्रकट हो रही थी। पाण्डुलिपि प्रेस में जाने के बाद अनेक साथियों ने सुझाव भी दिये और मांग भी की, नाट्य-कला और उसके विकास का विवेचन भी पुस्तक में रहे । उनकी माँग का उत्तर देना अनिवार्य हो गया। पुस्तक में नाटक के विकास और महत्व का विवेचन कर दिया गया और हिन्दी-नाटकों के विकास और अभाव की भी समीक्षा कर दी गई; पर नाट्य-कला और तत्त्वों को नहीं छुया गया । अन्य समीक्षकों के समान संक्षिप्त में तत्त्व गिनाने से कोई लाभ नहीं, जब तक उनका मौलिक और नवीन दृष्टिकोण से विस्तृत विवेचन न किया जाय । उसकी आवश्यकता इस पुस्तक में नहीं और न इतना स्थान ही है। इसके अतिरिक्त, किली भी नाटककार के नाटकों की समीक्षा पढ़कर नाट्य-कला के सिद्धान्त पाठक स्वयं भी स्थिर कर सकता है। नाटक के जन्म, महत्व, विकास आदि पर जो भी कुछ कहा गया है, वह स्वतंत्र विचार पर आधारित है। केवल गिनती गिनाने के लिए ही अभाव या भाव के कारण प्रस्तुत नहीं किये गए और न परम्परा से प्राप्त समीक्षासम्पत्ति का उत्तराधिकार की तरह उपयोग किया गया । कला के रूप में नाटक और हिन्दी-नाटक का विकास दिया गया है, विकास के नाम पर इतिहास नहीं । प्रायः समीक्षकों ने इतिहास को ही विकास के नाम पर प्रस्तुत कर दिया है। इस पुस्तक में पाठकों को भ्रन में न पड़ना पड़ेगा। 'आलोक' में नाटक-संबंधी उन्हीं विययों पर विचार किया गया है, जो अत्यन्त आवश्यक समझे गए, जिनका सम्बन्ध हिन्दी-नाटकों की समीक्षा से है। उन सभी बातों को, जो अनावश्यक हैं, साधारण हैं, या विशेष महत्त्व नहीं रखतीं, छोड़ दिया गया है । 'श्रा नोक' के अन्तर्गत ग्राये नाटकीय विवेचन में मौलिकता, नवीन दृष्टिकोण अनाभिभून चिन्तन का ही अनुरोध मेरी लेखनी का रहा हैउस अनुरोध-पूर्ति की चेष्टा भी की गई है।Page Navigation
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