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अभिप्राय
श्रीमती प्रीतम सिंघवी ने "हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप विकास शोध प्रबन्ध लिखा है । हिन्दी साहित्य से पूर्व जो वेद से लेकर जैन-बौद्ध साहित्य-संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश में लिखा है, उसमे कृष्ण स्वरूप का जो विकास हुआ है, उसका निरूपण करके हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण चरित्र का जो रूप मिलता है उसका विवेचन किया है । उनका यह प्रयल सर्वप्रथम है । ऐसा मेरे अल्पज्ञान के आधार पर कहूँ तो अनुचित नहीं होगा।
वैदिक साहित्य में विष्णु के अवतार रूप से कृष्ण का चरित निष्पन्न हुआ है जबकि जैन धर्म में अवतारवाद का कोई स्थान नहीं होने से जैन परंपरा ने अपनी दृष्टि से महापुरुषों का ( शलाका पुरुषों का ) विभाजन जो किया है वह इस प्रकार है-1 २४ तीर्थंकर और १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रति वासुदेव सब मिलकर ६, शलाकापुरुष कालचक्र के उत्सर्पिनी और अवसर्पिनी में होते हैं । प्रस्तुत अवसर्पिनी में जो ९ वासुदेव हुए उनमें एक श्री कृष्ण भी है।
वास्तविक परिस्थिति यह है कि जैनों ने अपने यहाँ अर्थात् जैन समाज में जो तीर्थंकर हुए उनको तो महापुरुषों में स्थान देना ही था । किन्तु समग्र समाज में भी जो महापुरुष माने गए उनकी उपेक्षा भी जैन कर नहीं सकते थे । अतएव उन्होंने कृष्ण-राम जैसे समग्र समाज को जो मान्य थे उन्हे भी अपने महापुरुषो में समाविष्ट कर दिया किन्तु वर्तमान कालचक्र में उन्हें तीर्थंकर का दरजा दिया नहीं। आगे चलकर वे भी तीर्थकर पदवीप्राप्त कर सकेंगे ऐसी भी व्यवस्था बना दी है।
प्रस्तुत में श्रीमती सिंघवी ने कृष्ण चरित जो कि जैन मतानुसार वासुदेव कोटि में आता है, उसका विस्तार से अनेक ग्रन्थो की तुलना करके किया हैं ।
विशेषकर श्री कृष्ण के जीवन के तीन पक्ष - बाल गोपाल, राजनीतिक नेता और आध्यात्मिक नेता - के विषय में हिन्दी ग्रन्थो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है।
उनके इस परिश्रम से, वाचक को अवश्य लाभ होगा ऐसा में मानता हूँ।
दलसुख मालवणिया
अहमदाबाद ७-१-९२
पद्म भूषण
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास • I