Book Title: Gurutattva Vinischaya
Author(s): Yashovijay Gani, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 10
________________ *RISTICAS म्पादकी ४ आ साहित्यप्रकाशनना पूर जमानामा साधारण नियम प्रस्तावनाद्वारा ग्रंथनी माहिती मेळववानो थइ पड्यो छे. तेवे || यवक्तव्य समये प्रचलित भाषामा लखायेल प्रस्तावनादि संस्कृत भाषाना ओछामा ओछा अभ्यासी के सर्वथा अनभ्यासी सुधांनी जिज्ञासा पूरवामां सहायक थाय ए देखीतुं ज छे. ५ प्रस्तुत ग्रंथ जेवा ग्रंथोना अभ्यासी मोटे भागे साधु, साध्वी अगर जैन मात्र होय छे. तेओमां पण शास्त्रीय भाषानुं उडु ज्ञान गण्या गांठ्याओने ज होय छे. आवी परिस्थितिमा छपाएल ग्रंथो मात्र भंडारना अलंकारो ज बने छे. एटले प्रचलित भाषामा प्रस्तावना आदि लखाएल होय तो एकवार पुस्तक हाथमां आव्या पछी बीलकुल उपेक्षा तो न ज थइ शके. अने परिणामे मूळ ग्रंथो तरफ रुचि आकर्षाय.” इत्यादि कारणो उपर विचार करी अत्यार सुधीनी अमारी चालु पद्धति बदली मातृभाषामा ज प्रस्तावना के | विषयानुक्रमणिका आपवानो अमे विचार कर्यो छे. मदद-प्रस्तुत ग्रंथना मुद्रणमा जेटलो अर्थव्यय थयो छे, लगभग तेनो अधों भाग गोघाबंदर (हाल मुंबइ-घाटकोपर) | निवासी सुश्रावक श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् परमानंददास रतनजीभाइ तेम ज धर्मात्मा श्रेष्ठिवर्य छोटालाल जीवणभाइ तरफथी मळेलो छे ते बदल पुस्तकप्रकाशक श्रीजैनआत्मानन्दसभा, भावनगरना सभासदो तेओनो आभार माने ए सहज छे. | अंतिम निवेदन-आ ग्रंथना मुद्रणकार्यमा पहेलेथी छेले सुधी लगभग घणी वार शारीरिक विनोथी हुँ घेरायेल रह्यो छु. है छतां वर्तमानस्वरूपमा आ ग्रंथ वाचको समक्ष आटले काळे पण हाजर थाय छे तेनुं कारण मारा लघु शिष्य मुनिश्री पुण्यविजयजीनी | खास महेनत छे. आ महेनतनो लाभ न मन्यो होत तो आ ग्रंथ छपाववानुं काम तेना विचारना पहेला पगथीआथी ज अटक्युं होत. - - Jain Education International For Private & Personal use only in library og

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