Book Title: Gurutattva Vinischaya
Author(s): Yashovijay Gani, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ गुरुत. २ कहेवाय. बाकी बीजां नानां प्रकरणो तो दरेक उल्लासनी अंदर अनेक छे. मूळ पद्यमय छतां ते प्रसाद्गुणवालुं छे. तेथी वांचतां बेंत ज अर्थनुं भान थवामां अडचण आवती नथी. टीकानी भाषा पण प्रसादगुणसंपन्न छे, छतां तेमां काठिन्य होय तो ते सूक्ष्म तार्किक चर्चाने लीधे छे. पण ए चर्चामां जे भाव अने जे वस्तु गोठवाल छे ते समजनारने भाषानुं काठिन्य के न्यायमिश्रितता जरा पण खटके तेवी नथी. आंतररूप - प्रस्तुत ग्रंथनो मुख्य विषय गुरुतस्त्वनुं निरूपण करवुं ए छे. तेने अंगे बीजा नाना मोटा सेंकडो विषयो चर्चाएला छे. जेनो कांइक ख्याल वाचकोने ग्रंथना प्रारंभमां आपेल विषयानुक्रम उपरथी आवी शकशे विषयसंकलना कइ रीते करवामां आवी छे तेनो ख्याल वाचकोने "टुंकमां ग्रन्थनुं वस्तु" ए शीर्षक नीचे आपेल विचारो वांचवाथी आवशे. उपाध्यायजीना ग्रंथना प्रामाण्यना संबंधमां कांड कहेवुं ए तो एक बटुक शिष्ये महान् गुरुनी महत्ता आंकवा जेवुं उपहासास्पद छे, क्यां उपाध्यायजी जेवा जन्मसंस्कारसंपन्न अने श्रुतयोगसंपन्न धुरन्धर आचार्य, अने क्यां अमारा जेवा तेओना एक पण ग्रंथनुं एक पण वक्तव्य परिपूर्ण समजवा असमर्थ शिष्यो. छतां तेओना विचारदर्शनथी अमारा मन उपर जे छाप पडी छे, अने कोइ पण विचारक वाचकना मन उपर पडी शके, तेने नम्रपणे कहेवामां कांइ धृष्टता न गणाय. उपाध्यायजीए प्रस्तुत ग्रंथमां एक पण एवी वात नथी कही के जेनो आधार शास्त्रमां के तर्कमां न होय. तेओए जे जे कयुं छे ते बधानुं उपपादन प्राचीन अने प्रामाणिक ग्रंथोनी सम्मतिद्वारा कर्यु छे. क्यांइए कोइ ग्रंथनो अर्थ काढवामां खेचताण नथी करी. तर्क अने सिद्धान्त बन्नेनुं समतोलपणुं साचवी पोताना वक्तव्यनी पुष्टि करी छे. प्राचीन ग्रंथो करतां उपाध्यायजीना आ ग्रंथमां विशेषता होय तो ते एटली ज के ते ते Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 540