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वर्तमान में जो आगम साहित्य उपलब्ध है, उसका समय-समय पर आगम मनीषियों ने . विभिन्न रूपों में वर्गीकरण किया है। नंदी सूत्र के रचयिता आचार्य श्री देववाचक ने अंग प्रविष्ट
और अंग बाह्य दो भागों में विभक्त कर पुनः अंग बाह्य को आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त में विभक्त किया। इसके अलावा कालिक और उत्कालिक के रूप में भी इनको प्रतिष्ठित किया है। पश्चात्वर्ती आचार्यों ने अंग, उपांग, मूल, छेद और आवश्यक सूत्र के रूप में इनका वर्गीकरण किया। इसके अलावा विषय सामग्री के संकलन के आधार पर द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग और चरणकरणानुयोग के आधार से इसे चार भागों में भी वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार अनेक प्रकार का वर्गीकरण होने पर भी सभी आगम साहित्य के मूल रचयिता तो दो ही हैं या तो गणधर भगवन् अथवा स्थविर श्रुत-केवली भगवन्। प्रस्तुत ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अंग प्रविष्ट द्वादशांगी का छठा अंग सूत्र है। विषय सामग्री की अपेक्षा कथा प्रधान होने से यह धर्मकथानुयोग के अर्न्तगत आता है। समवायांग सूत्र के बारहवें समवाय में ज्ञानाधर्मकथांग की विषय सामग्री के बारे में निम्न पाठ है।
शिष्य प्रश्न करता है कि अहो भगवन्! ज्ञाताधर्मकथा में क्या भाव फरमाये गये हैं? भगवान् फरमाते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञात अर्थात् प्रथम श्रुतस्कन्ध में उदाहरण रूप से दिये गये मेघकुमार आदि के नगर, उद्यान, चैत्य-यक्ष का मन्दिर, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक पारलौकिक ऋद्धि, भोगों का त्याग, प्रव्रज्या, श्रुत(सूत्र)परिग्रहसूत्रों का ज्ञान, उपधान आदि तप, पर्याय-दीक्षा काल, संलेखना, भक्त प्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग, पादपोपगमन संथारा, देवलोकगमन-देवलोकों में उत्पन्न होना। देवलोकों से चव कर . उत्तम कुल में जन्म लेना, फिर बोधिलाभ सम्यक्त्व की प्राप्ति होना और अन्त क्रिया आदि का वर्णन किया गया है। ___तीर्थंकर भगवान् के विनय मूलक धर्म में दीक्षित होने वाले, संयम की प्रतिज्ञा को पालने में दुर्बल बने हुए, तप नियम तथा उपधान तप रूपी रण में संयम के भार से भग्नचित्त बने हुए घोर परीषहों से पराजित बने हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग से पराङ्गमुख बने हुए, तुच्छ विषय सुखों की आशा के वशीभूत एवं मूर्च्छित बने हुए साधु के विविध प्रकार के आचार से शून्य और ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाले व्यक्तियों का ज्ञाताधर्मकथा
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