Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है, जिसके आइने पर उस समाज की समस्त गति विधियों का प्रतिबिम्ब दृष्टि गोचर होता है। साहित्य के बल पर ही सम्बन्धित समाज के ज्ञानविज्ञान, न्याय-नीति, आचार-विचार, धर्म, दर्शन, संस्कृति, खान-पान, रीति-रिवाज आदि की जानकारी होती है। भारतीय साहित्य का यदि सिंहावलोकन किया जाय तो जैन साहित्य का अपना विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। इसका कारण अन्य दर्शनों के साहित्य को हलका बताना नहीं बल्कि वास्तविकता है। क्योंकि अन्य सभी दर्शनों के साहित्य छद्मस्थ कथित अनेक ऋषियों के विचारों का संकलन है जो विभिन्नताएं लिए हुए होने के कारण पूर्वापर विरोधी एवं ज्ञान की अल्पता के कारण अपूर्ण हैं, जबकि जैन आगम साहित्य राग द्वेष के विजेता तीर्थंकर प्रभु द्वारा कथित है, जिसमें वक्ता के साक्षात् दर्शन और वीतरागता के कारण दोष की किंचित् मात्र भी संभावना नहीं रहती, न ही उनमें पूर्वापर विरोध मिलता है। . जैन आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है, उसका कारण मात्र गणधर कृत होने से नहीं बल्कि इसके अर्थ के मूल प्ररूपक तीर्थंकर भगवान् की वीतरागता और सर्वज्ञता है। जो आगम साहित्य तीर्थंकर कथित एवं गणधर रचित होता है, उसे जैन दर्शन में द्वादशांगी रूप अंग प्रविष्ट साहित्य कहा जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे साहित्य को भी जैन दर्शन मान्यता प्रदान करता है जो श्रुतकेवली (दस से चौदह पूर्व के ज्ञाता) द्वारा रचित्त होता है। इस साहित्य को आगम शैली में अंग बाह्य कहा जाता है। श्रुत केवली द्वारा रचित आगम साहित्य को भी आगम मनीषी उतना ही प्रमाणित मानते हैं जितना अंग प्रविष्ट साहित्य को। इसका कारण रचयिता की श्रुतज्ञान की विशुद्धता है। जो बात तीर्थंकर प्रभु कह सकते हैं, उस को श्रुत केवली अपने ज्ञान बल से उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप में जानते देखते हैं, जबकि श्रुत केवली श्रुत ज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं। साथ ही उनकी रचनाएं इसलिए भी प्रामाणिक मानी जाती हैं क्योंकि वे नियमतः सम्यग् दृष्टि ही होते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन आगम साहित्य के रूप में सर्वज्ञ कथित एवं गणधर रचित अथवा श्रुतकेवली द्वारा रचित को मान्यता प्रदान करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 466