Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ पुरोवचन एकार्थक शब्दों को संग्रह सर्वप्रथम हम यास्क रचित निघण्टुकोश में पाते हैं । इसमें शब्दों का संकलन सुनियोजित रूप में किया गया है । प्रथम अध्याय में पृथ्वी, अन्तरिक्ष, मेघ, नदी आदि वस्तुओं के एवं उनसे सम्बद्ध क्रियाओं के वाचक ४१५ पर्यायवाची शब्द संकलित हैं । द्वितीय अध्याय में मनुष्य एवं उसके अंगों आदि से सम्बद्ध ५१६ पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। तीसरे अध्याय में ४१० पर्यायवाची शब्दों का संग्रह है। इस प्रकार उत्तरवर्ती अध्यायों में भी एकार्थक शब्द संकलित हैं। पर्यायवाची शब्दों के एक समूह में से केवल एक-आध शब्द की ही व्याख्या यास्क ने की है। उदाहरणार्थ-गत्यर्थक १२२ शब्दों में से किसी भी शब्द द्वारा वाच्य गति विशेष का निरूपण नहीं किया गया है । केवल इतना ही कह दिया है कि १२२ धातुएं गत्यर्थक हैं । इस पर टिप्पणी करते हुए एक वृत्तिकार ने कहा है-"अत्र पुनर्यद्यपि गतिकर्मणां द्वाविंशतिशतसंख्यानाम अविशिष्टं गमनमेकोऽर्थ उक्तः, तथापि प्रसिद्धयनुरोधाय कसति, लोठते, श्चोतते इत्येवमादयः प्रतिनियत-सत्व-गमनविषया एव द्रष्ट व्याः.....।" तात्पर्य यह है कि एकार्थक शब्द एक ही विषय की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करते हैं। ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही वर्ण के वाचक भिन्न-भिन्न शब्द भिन्न-भिन्न विषयों के लिये प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरणार्थ--गौर्लोहितः, अश्वः शोणः । गौः कृष्णः, अश्वो हेमः । गौः श्वेतः, अश्वः कर्कः। __ आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने आवश्यक के पर्याय नामों के विषय में कहा है कि वे अभिन्नार्थक, सुप्रशस्त, यथार्थनियत, अव्यामोहनिमित्त एवं नानादेशीय शिष्यों को अनायास प्रतिपत्ति कराने वाले हैं। एकार्थक शब्द अपने प्रतिपाद्य विषय को सुव्यवस्थित रूप से निर्धारित करते हैं। एकार्थवाची शब्दों द्वारा विद्यार्थी को बहुश्रुत बनाया जाता है एवं प्रतिपाद्य विषय के विभिन्न अंगों का प्रतिपादन भी व्यवस्थित रूप से किया जाता है । "एकाथंक" शब्द का अभिप्राय वस्तुतः "समानार्थक" से है। किसी भी विषय के विभिन्न पहलुओं के स्वरूप समानार्थक अनेक शब्दों द्वारा सरलता से सम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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