Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni Author(s): Kamtaprasad Jain Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth View full book textPage 8
________________ . मेरे दो शब्द पिछली गर्मी के दिन थे। “जैन मित्र" पढ़ते हुये मैंने देखा कि श्री भा, दि. जैन शास्त्रार्थ संघ. अम्बाला दिगम्बर जैन मुनियों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक वार्ता एकत्र करने के लिये प्रयत्नशील है। यह विप्नि पढ़कर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। इनहास में मुझे प्रेम है। मैं तब इस विर्सन के फल को देखने की उत्कण्ठा में था कि एक गेज मुझं सघ के महामंत्री प्रिय राजेन्द्र कुमार जी शास्त्री का पत्र मिला। मंगे उत्कष्टा चिन्ता में पलट गई। पत्र में मांधानिशीघ्र दिम्बा मुनियों के इतिहास विषय को एक वृहत पुस्तक लिख देने की प्रेमा थी। उस प्रेरणा को यों ही टाल देने की हिम्मत भला कैसे होती? उस पर वह प्रेग्णा वस्तुतः माय की आवश्यकता और धर्म की पुकार थी। मुनि धर्म मोक्ष का द्वार है. दिगम्बग्वं उस धर्म की कुञ्जी है। नारामा लोग उस कुती को तोड़ने के लिये पार करने को उतारू हों, तो भत्ला एक धर्मवत्सल कैसे चुप रहे? बम, सामर्थ्य और शक्ति का ध्यान न करके बड़े मंकोच के साथ मैंने संघ का उक्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उस स्वीकृति का ही फल प्रस्तुत प्रस्तक है। पुस्तक क्या है? कैसी है? इन प्रश्नों का उगर देना पेग काम नहीं है। मैन तो मात्र धर्म भाव में प्रेरित होकर 'सत्य' के प्रचार के लिये उसको लिख दिया है। हिन्दू-मुसलमान-ईसाई- यहूदी-पत्र ही प्रकार के लोग उसे पढ़ें और अपनी बुद्धि को तर्क तराजु पर तौलें और फिर देखें, दिगम्वरत्व मनुष्य समाज की भलाई के लिये कितनी जरूरी और उपयोगी चीज है। इस्य रीत की परख ही उन्हें इस पुस्तक की उपयोगिता बता देगी। हाँ, यह लिख देना में अनुदित नहीं समझता कि अखिल भारतीय दिगम्बर मुनि रक्षक कमेटी ने इस पुस्तक को अपने काम में सहायक पाया है। 'असम्बलो' में दिगम्बर मुनिगण के निर्बाध विहार विषयक बिल' को उपस्थित कराने के भाव में इस पुस्तक में अंग्रेजी में 'नोट्स' तैयार कराकर माननीय असेम्बलो मम्बरों में वितरण किये गये थे। विश्वास हैं, उपयुक्त वातावरण में कमेटी का उक्त दिगम्बात्व और दिगम्बर पनिPage Navigation
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