Book Title: Dhurtakhyan
Author(s): Haribhadrasuri, Jinvijay
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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५२
वालावबोधरूपगूर्जरभाषामय-धूर्ताख्यानकथा अगस्ति प्रमुख महाऋषि, अमराधिप, हरिहरादिक सर्व महापुरुषनें स्त्रीइं दास कर्या । ते माटइं त्रिलोत्तमा स्वर्ग वेस्यानइ कह्यौ जे – 'ब्रह्माने तपथी 'चूकाविई' - एहवू इंद्रनुं वचन सांभली त्रिलोत्तमा वेश्या अद्भुत वेप श्रृंगार करी, ब्रह्मानी आगलि, पीनोन्नतथन कुचकलशयुगल उदरदेश नाभी
भाग भुजमूल जघनस्थल नितंबबिंब दिखाडती नाचवा लागी । ते नाचती देखी एकेन्द्रियनी परें 5 सकलेंद्रिय व्यापार रहित हुतो निर्निमेप स्निग्ध लोचने ब्रह्मा जोवा लागो । तिवारिं तेहy सविकार
मन जांणी, त्रिलोत्तमा दक्षिणपासै रही । तिवारि ब्रह्माइ ते दिशि बीजं मुख कयुं । इम पश्चिम दिशि त्रीजु मुख करां । इम उत्तर दिशि चउ, मुख कस्युं । तेवारि त्रिलोत्तमा ऊंची उत्पती, ब्रह्माइ पणि उपरि पांचमु मुख कयुं । ते वेलाइ ब्रह्माने मदनपरवश थयो देखी ईश्वरई नखइ
करीने ते पांचमुं मुख उखेड्युं । तेथी कोपांध थयो हुँतो ब्रह्मा, दक्षिण हस्तनी तर्जनी आंगुलीइ करी ॥ पोताने भालिं क्रोधथी ऊपनो प्रस्वेद हतो ते मूकतो हुओ। तेथी बलवंत श्वेतकुंडली नामि एक पुरुष नीसयौ । ते ब्रह्माने वचनें ईश्वरनें पुठिं मारवा धायो । तेथी ईश्वर भयभ्रांत हुंतो नासतो बदर्यासन पाम्यौ । तिहा नियम करता विष्णुनइ जईनइ कहिउँ जे मुझनइ भिक्षा आलि । तेवारि विष्णुइं पोताने भालस्थलिं रुधिर सिरा उघाडी । ईश्वरं ब्रह्मानुं मस्तक कपाल हेठि धर्यु । ते मस्तक
कपाल, ते रुधिरधाराई दिव्य वर्ष सहस्रइ पणि न भराइ । पछइ ते रुधिर ईश्वरें एक अंगुलीइं 15 डोहिउं, तेवारि ब्रह्मानुं मस्तककपाल १, विष्णुरुधिर २, ईश्वरनी अंगुलि ३,-ए त्रिणिनइ संयो
गइ रक्तकुंडली नामि एक पुरुष नीकल्यौ । ते ईश्वरनी आज्ञाइ स्खेतकुंडली साथि वढवा गयो । पछै ते बेहुँनई विढाता एक दिव्य वर्ष सहस्र थयुं । पछै देवताई युद्ध करता निवारी, एक इंद्रनइ, एक सूर्यनइ आपीनै कहिउं जे 'भारतकालि भारतनु मुद्ध वधारवा मनुष्य लोकि ए बिहुंना मोक
लज्यो' । तिवार पछि भारलावतार काल आवे "हुते, सूर्य कुंतीने रूप लावण्यई मोह पांमी भोग2 वीनइ ते रक्तकुंडली पुरुष गर्मि अवतखौ । पछै पूरे मासि सन्नाह सहित कुंतीनइ कानि ते पुरुष प्रसिविओ" । तेहy नाम कर्ण दीर्छ । जो ते पुरुष कानि नीसखौ तो तुं कमंडलग्रीवा किम न नीसरइ । ६ । [१,५८-८४ ]
तथा ने पूछिउँ"जे- 'अगाध जलभरी गंगा नदी मइ भुजाइ किम तरी ते उपरि प्रती तिचं कारण रामायणनो वृत्तांत सांभलि - हनुमंत रामचंद्रनी आज्ञाइ, सीतानी शुद्धि लेका बाहाई" समुद्र सरी 25 लंका नगरीइं गयो । सीवाइ धणीनो कुसल समाचार पूछीनइ कहिलं जे- 'तें समुद्र किम तौ।' तिवारि हनुमंति कहिउं
तव प्रसादास पवनप्रसादाद् भर्तुश्च ते देवि ततः प्रसादात ।
त्रिभिः प्रसादैरनुगम्य सोऽयं तीर्णो मया गोष्पदवत् समुद्रः ॥१॥ जो तेणिं हनुमंतें भुजाइ महासमुद्र तस्यौ, तो तुं गंगा भुजाइ क्रिम न उतरइ।७। [१,८५441 # सभा तें ऋहिउं ले-मइ छम्मास लगि माथह जलधारा किम भरी ?' ए सपरि पनि द्विजानिकली श्रुतिथी आव्यु वचन सांभलि-देवताइ लोकनि हितमि अर्थि प्रार्थना करीनइ गंगामें कहि को-'हूं
____1A चुकावइ। 2P ईश्वरें नखें। P भालें। 4 P नामें। 5 P ऋएं। 6 P आल। 7 P ईवरि। 8 बढता। 9P आविति। 10P प्रसन्यो। 11 P पुर्छ। 12P भुजाई! 13P
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