Book Title: Dhurtakhyan
Author(s): Haribhadrasuri, Jinvijay
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 152
________________ बालावबोधरूपगूर्जर भाषामय धूर्ताख्यानकथा ६५ काउ ! पछइ ते व्यवहारीआना सेवकइ दीन भाषती ते धूर्त्तानें घर बाहिर घसरडीने काढवा मांडी । तिवारि ते कपट करी सहसात्कारि भूमिकाई पडी महास्वरइ आनंद विलाप करती उठीहा हा अरे लोको ! जुओ' आ पापी व्यवहारीइ धननें गर्वइ आंधलइ हुं अनाथ निराधारनो पुत्र मार्यो । मुझने आसा हती जे आ पुत्र मोटो थास्यै, तेथी सकल मनोरथ संपूर्ण थास्यै । ते आसा - रूपणी वेल, ए पापी व्यवहारीइ मत्त गजनी परि उन्मूली नाखी । इम विलाप करती, हृदय ताडती, केश विखेरती, भूमि आलोटती, ते धूर्त्ता स्त्रीनइ देखीनें - मई माहरा सेवकनें आज्ञा देई मोकल्या, तेइ आ ब्राह्मणीनो पुत्र मारी, महा उत्पात कखो, जो ए वात राजा सांभलस्यै तो मुझनै दंडस्यै - इम चितवतो ते व्यवहारीओ पोताना परिवार साथइ जई दीन थई मनावा लागो जे - बहिनी ! भवितव्यता हती ते थई; हवि विलाप करें स्युं थाइ ? ताहरे जे द्रव्य जोईइ ते लिइ' - इम कही पोतानी रत्नजटित मुद्रका आपी । सम देवरावी उठाडी । पछइ ते मुद्रका लेई उद्यानि आवीनइ 10 खंडपानाइ सर्व धूर्तनई ते मुद्रिका देखाडी । चउहटइ जई वैची । तेहनैं द्रव्ये सर्व भोग्य वस्तु आणी सर्व धूर्त्तनई भोजन कराव्यं । पछई ते सर्व धूर्त संतुष्ट थई खंडपानानई वषाणवा लागा - 'जे तुं महा बुद्धिवंत, ताहरु जीवित सफल छइ । वचन महा पंडित बोली न जाणइ, तेहवां वचन सांभल्या विनाए पणि स्त्रीओ बोली जाणइ । उक्तञ्च - अधीत्य शास्त्राणि विमृश्य चार्थान् न तानि वक्तुं पुरुषाः समर्थाः । यानि स्त्रियः प्रत्यभिधानकाले वदन्ति लीलारचिताक्षराणि ॥ १ ॥ इम खंडपानानहं वषाणी । मूलदेव प्रमुख सर्व धूर्त्त पोता पोताने ठांमिं गया । [५,७७-१०९] ॐॐ तथा, विष्णु सर्व व्यापी छइ, तिल तुष मात्र किसी वस्तु अण व्यापी नथी रही । जो विष्णु सर्व suri छह, तो अलगी कोण वस्तु रही, जेहनें ज्ञानें करी देवइ ? । तथा, गणेश पार्वतीना शरीरना मलथी ऊपनो, तथा पार्वती हिमाचलथी ऊपनी - इत्यादिक, भारत रामायण पुराणादिकनां वचन, 20 कूट कांचननी परि परीक्षा करतां विघटई । ए सर्व मिध्यात्वीनां वचन, गर्धभलींडांनी परि बाहिर सुंदर, अंतर वृत्ति तुस-भूस सरिषां जाणी, सम्यग् दृष्टीइं, सम्यक्त्व शुद्धि करवा त्रिविध त्रिविध मिथ्यात्वीना ग्रंथ परिहरि, सकल पुरुषार्थ साधक, परमानंद पददायक, पूर्वापर विरोधगंध रहित श्री वीतराग त्रैलोक्यपूजित सर्वज्ञनां वचन सांभलवां, सहहवां, अनुमोदवां, ध्याववां ॥ ॥ इति सकलश्वेताम्बर शिरोमणि-सर्वशास्त्रालंकारायमाण-भहारकश्रीहरिभद्रसूरिविरचितस्य धूर्ताख्यानप्रबन्धस्य बालावबोधरूपाः कथाः समाप्ताः ॥ संवत् १७५८ वर्षे कार्चिक्रमासे शुरूपसे द्वादशीतिथौ शनिवासरे श्रीउदैपुरमध्ये लिषितं पं० लक्ष्मीकीर्त्ति [ना] - खरतरगच्छे जिणमाणिक्यशाखायां वाक रक्तसुन्दरयथिनां शिष्यलक्ष्मीकीर्त्तिः ॥ ॥ चिरं ताराचंद ॥ ॥ शुभं भवतु || || श्रीरस्तु ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ 1 A जोडे। धू० ६ Jain Education International 15 For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160