Book Title: Dhurtakhyan
Author(s): Haribhadrasuri, Jinvijay
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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बालावबोधरूपगूर्जरभाषामय - धूर्ताख्यानकथा देवताइ हासी करी पूछिउं- 'तुम्हनें त्रिणनई सुख छै ?' । तिवारि यमनें मुखें थई उदरथी बाहिर धूमोर्णा नीसरी । तेहना उदरथी मुखमार्गइ अग्नि नीकली नासीनइ वन मांहिं पइठो । यम ते पूठि धायो । वन मांहिं जई अग्नि आव्यानो समाचार हाथीनइ पूछिओ । तेणिं न कह्यो। ते माटि गजनी वाचा छेदीनइ यम पोताने घरे आव्यो । जो यमनी स्त्री अग्नि भोगवी अनइ न बली, तो तुं अग्नि साथि भोग भोगवतां किम बलइ ?' ॥ [५,२४-३१]
इति खण्डपानां प्रति एलाषाढेनोक्तं प्रत्युत्तरकथानकम् ॥ ५॥
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वली खंडपाना बोली- 'मई कोइक समये इंद्र आकर्षीओ । तेणई हुं भोगवी । एक इंद्र समान पुत्र आव्यौ । अप्सराउ नइ मूकी इंद्र मुझनें भोगवी, ए वात किम संभवइ ?' ॥
॥ इति खण्डपानयोक्तं कथानकम् ॥ तिवारि शश बोलिओ- 'स्युं तई नथी सांभल्युं, गौतम ऋषिनी भार्या अहिल्या इंद्र भोगवी; ते ॥ जांणी रीसें गौतम ऋषि सराप देई सहस्रभग करी इंद्रनें छात्रनइ आप्यो । ते छात्र कामज्वर पीड्या हुंता इंद्रनइ घणुंज कष्ट देवा लागा। पछै सर्व देवताई गौतम ऋषिने वीनती करीनै इंद्र मूकाव्यो । सहस्र भगनइ ठामि सहस्र लोचन थयां । तथा इंद्रइ कुंती भोगवी अर्जुन नामा महाधनुर्धर पुत्र आव्यो । जो इंद्रइ अहिल्या कुंती भोगव्यां, तो तुझ सरीपी रूपवती स्त्रीने किम न भोगवइ । १-२ । [५,३.२-३७]
इति खण्डपानां प्रति शशेनोक्तं प्रत्युत्तरकथानकम् ॥ ६-७॥ तथा वली खंडपाना बोली- 'तुम्हे माहरु नाम गोत्र ठाम मायावीपणुं जाणउ छो, किं वा नथी जाणता ?' तिवारि मूलदेवे कहिउं- 'पाटलीपुत्र नगरि गौतम गोत्री नागशर्म बाह्मणनी पुत्री, नागश्रीनी कूखिनी उपनी, खंडपाना नामि प्रसिद्ध छै' । तिवारि खंडपाना बोली- 'तुम्हने सरिखु रूप देखी भ्रांति थइ छइ, पणि हुं नागशर्म बाह्मणनी बेटी नही । राजाना रजकनी दग्धिका नामि बेटी छु । । माहरु घर राजमंदिरनी परें धन-धान्य संकीर्ण छइ । राजानां अंतःपुरनां वस्त्र हजार मजूरस्युं परवरी हुं धोउं छु । कोइक समइ हुं बहु वस्ति शकट भरी हजार मजूर साथइ नदीतटइं गई । तिहां छड-छड, हुं, छे, शं, टा शब्द बोलता हजार मजूरह सर्व वस्त्र धोई तापें सुकवा मूक्यां । एहवि महावायु वायो । तेणि सर्व वस्त्र अपहरी उडाड्यां । तिवारइ मई माहरा सर्व मजूरनइ कह्यु-तुम्हे जिहां जवाइ तिहां नासी जाओ। किसी चीता न करस्यो । राजा जे करस्यइ ते हुँ । सहीस । पछै हुं गोह रूप धरी रातइ नगरनें उद्यानि क्रीडा करती रही। प्रभातें, रखे कोई गोह जाणीनइ मारइ - इम चीतवी आम्रलता रूप धरी अशोकिं वलगी रही । पछइ पवनइ हया वस्त्र जांणीनइ न्यायवंत ते राजाई पटह वजाड्यो जे-'अहो रजको! जे जिहां गया होइ ते सर्व तिहाथी पोताने घरि आवो । तुम्हनें अभय छइ' । ते वात सांभली सर्व रजक परि आव्या । हुंए आम्रलतापणुं मूंकी मूलगू स्त्रीनुं रूप धरी घरि आवी । पछइ माहरो पिता नदी तरी ते शकट लेवा गयो। विहां वाधर सगलां शृगालि खाधा देखी, वन मांहिं वाधर जोवा भमतां, एक उंदरतुं पूंछडु लाधुं । तेहना अनेक मोटा वाधर पूरा नीपजावी हर्षि घरि पिता आव्यो। ए सर्व सत्य, किंवा असत्य है १ ॥ [५,३८-५८ ]
॥ इति खण्डपानयोक्तं कथानकम् ॥ 1P तटैं। For Private & Personal Use Only
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