Book Title: Dharmik Vahivat Vichar
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 211
________________ 190 धार्मिक-वहीवट विचार प्राप्तिको रोकता है / इस शास्त्रपाठसे भी यह स्पष्ट होता है कि देवद्रव्यसे जिनप्रतिमाकी पूजाभक्ति आदि होता है, जिसे देखकर भव्यजीव हर्षानुभव करनेसे सम्यक्त्वादिकी प्राप्ति करते हैं, देवद्रव्यका नाशक इन सभी गुणोंकी प्राप्तिमें बाधक बनता हैं / इसी प्रकार जिससे भव्यजीवोंके भावोल्लासमें अनोखी वृद्धि हो, ऐसी पूजा-आंगी महोत्सवादि, पर्याप्तमात्रामें देवद्रव्य होने पर भी न किया जाय तो, इन सभी गुणोंकी प्राप्तिमें रुकावट आती है / (जे) उपदेशपद (पृ. 228) संकाशश्रावकके दृष्टान्तमें 'ततोऽस्य ग्रासाच्छादनमात्रं प्रतीतरूपमेव मुक्त्वा यत्किंचित् मम व्यवहरतः सम्पत्स्यते तत्सर्वं चैत्यद्रव्यं ज्ञेयमिति इत्यभिग्रहो यावज्जीवमभूदिति // 408 // 6 // अर्थ : अत:, 'भोजन और वस्त्रकी आवश्यकतासे अधिक मुझे जो भी व्यापारमें प्राप्त हो, उसे देवद्रव्य समझा जाय / ' ऐसा अभिग्रह संकाशश्रावकने यावज्जीवके लिए किया / (के) मूलशुद्धि प्रकरण : 'तओ तेण भगवओ चेव पायमूले गहिओ अभिग्गहो जहा- . गासाच्छायणमेत्तं मोत्तूण सेसं जं किंचि मज्झ वित्तं भविस्सइ तं सव्वं चेइयदव्वं, जहा तत्थोणकारइ तहा करेस्सामि, तओ अचिंतमाहप्पयाए अभिग्गहजणियकुसलकम्मस्स वित्थरिउ- माढतो विभवेणं / पेच्छिउण य विभववित्थरं पमोयाइरेगाओ समुल्लसंत-सुभ-सुभयरपरिणामाइसयसमुन्भिजंतरोमंचकंचुओ करेई जिणभवणाइसुण्ह वणडच्चणबलिविहाणाइं पयट्टावए अट्टाहियामहिमाओ विहइ अक्खयनी (नि)धियाओ कारवेह जिण्णोद्धारे / अर्थ : बादमें संकाशश्रावकने भगवानके सामने ही अभिग्रह लिया कि भोजन-वस्त्रादिकी आवश्यकतासे अधिक जो भी धन प्राप्त होगा. वह देवद्रव्य बनेगा / जिस प्रकार चैत्यके उपयोगमें आयेगा उसी प्रकार (उसका उपयोग) करूँगा / इस अभिग्रहसे उत्पन्न पुण्यका अपार महिमासे उसके वैभवमें वृद्धि होने लगी / यह देखकर अत्यंत प्रमुदित हुए उसके शुभशुभतर अतिशयित परिणाम उभरने लगे / इन उभरते परिणामोंसे रोमांचित हुआ वह जिनमंदिरमें स्नात्रपूजा, बलिविधान करता है / अट्ठाई महोत्सव . कराता है, अक्षयनिधि कराता है, जीर्णोद्धार कराता है /

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