Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 6
________________ वस्तुतः यदि हम जैनधर्म की भाषा में धर्म को वस्तु का स्वभाव मानें, तो हमें समग्र चेतनसत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना होगा। भगवती सूत्र में आत्मा का स्वभाव समता या समभाव कहा गया है। उसमें गणधर गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं। कि आत्मा क्या हैं और आत्मा का साध्य क्या है ? प्रत्युत्तर में भगवान् कहते हैं - आत्मा सामायिक (समत्व-वृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।' आचारांग भी समभाव को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शान्ति है मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक राग-द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत लक्ष्य रहा है । इस सम्बन्ध में श्री सत्यनारायणजी गोयनका के निम्न विचार द्रष्टव्य हैं - 'क्रोध. ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई | वैसे इनसे विमुक्त रहना भी न हिन्दू है न बौद्ध; न जैन है न पारसी; न मुस्लिम है न ईसाई । विकारों से विमुक्त रहना शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है ? क्या वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है ? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवनमुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है ? धर्म की इस शुद्धता को समझें और उसे धारण करें । (धर्म के क्षेत्र में ) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन हो, उन्मूलन हो; शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो । ' जब यह स्थिति आयेगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। साधनागत विविधता - असहिष्णुता का आधार नहीं तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक और सामाजिक समभाव भंग होता है । अतः इनके निराकरण को सभी धार्मिक साधना पद्धतियाँ अपना लक्ष्य बनाती है, किन्तु मनुष्य का अहंकार, मनुष्य का ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद कैसे हो - इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचार - भेद प्रारम्भ होता है। कोई परमात्मा या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है तो कोई उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात स्व-पर के विवेक को धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुत: यह साधनात्मक भेद ही धर्म की अनेकता का Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34