Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 20
________________ भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। तापे खंड कल्पनारोपित आप अखंड सरूप री॥ राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही सत्य के विभिन्न रूप हैं जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किन्तु उनकी मिट्टी मूलत: एक ही है। वस्तुत: आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अत: इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है और वे विवाद करने वाले लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं। धार्मिक संघर्ष का नियंत्रकतत्व- प्रज्ञा धर्म के क्षेत्र में अनुदार और असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह भी है कि धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्त्वों को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं । यह ठीक है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है। धार्मिक जीवन के आधार हमारे विश्वास और आस्थाएँ हैं लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि हमारे ये विश्वास और आस्थाएँ विवेक बुद्धि को नकार कर चलेंगे, तो वे अंधविश्वासों में परिणित हो जायेंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक संघर्षो के मूल कारण हैं। धर्मिक जीवन में विवेक बुद्धि या प्रज्ञा को श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए । अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग है फिर भी हमारा अधिकांश जन समाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा के बल पर जीता है हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक प्रधान नहीं होती तो वह सर्वाधिक घातक होती है। इसलिए जैन आचार्यों ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यक्-दर्शन के साथ-साथ सम्यक्ज्ञान को भी आवश्यक माना हैं। जैन परम्परा में भी जब, आचार के बाह्य विधिनिषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघव्यवस्था में जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गयी। उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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