Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 30
________________ कि मनुष्य - मनुष्य क बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएँ समाप्त हों और सभी एक दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना होगा। वे कहते हैं सत्त्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ प्रभु प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति समादर भाव, दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपा भाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थ भाव- समता भाव मेरी आत्मा में सदैव रहे । Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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