Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 29
________________ स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की, अपितु शिवमंदिर में जाकर शिव की वन्दना करते हुए कहा- जिसने संसार परिभ्रमण के कारण भूत राग-द्वेष के तत्त्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ। चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन । जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया । कुमारपाल के धर्मगुरू आचार्य हेमचन्द्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमंदिर में स्वयं उपस्थित होकर अपनी उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचन्द्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण भी आज उपलब्ध होते हैं । दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी के मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मन्दिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे । उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके हैं। उनका यह कहना कि - माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है- धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनन्दघन भी कहते हैं - षडदर्शन जिन अंगभणीजे न्यायषडंग जे साधे रे 1 नमिजिनवरना चरण उपासक षड्दर्शन आरधे रे ॥ अर्थात् सभी दर्शन जिस के अंग हैं और उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थत: जीवित है | आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया । सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो । भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो । वस्तुतः यदि हम विश्व में शान्ति की स्थापना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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