Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 32
________________ सन्दर्भ-ग्रन्थ लं + 6 1. आया णे अज्जो सामाइए, आयाणे अज्जो सामाइयस्स अट्ठे भगवती, 1/9 समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए- आचारांग, 1/8/3. धर्म जीवन जीने की कला-पृ. 7 एवं 8 योगदृष्टिसमुच्चय, 138 आचारांग, 1/4/2. योगदृष्टिसमुच्चय, 13/4 7. णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धि। तम्हा वयण विवादं सगपरसमएहिं वज्जिजा ॥-नियमसार, 155 एवाई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत परिगहियाई मिच्छासुयं एयाणि चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिगहियाई सम्मसुयं मिच्छदिहिस्सअहवा वि सम्मसुयं कम्हा ? सम्मत्त हेउत्तनओ जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समणा केइ सपक्खदिट्ठिओ चयंति से तं मिच्छासुयं । नन्दीसूत्र 72 9. (अ) भगवती-अभयदेवकृत वृत्ति, 14/7 पृ. 1188 (ब) मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि ॥ __-उद्धृत कल्पसूत्र टीका विनयविजय, पृ. 120 10. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, समामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिन्निपयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे॥ -उत्तराध्ययन 33/9 11. उत्तराध्ययन, 25/31-32 12. सूत्रकृतांग, 1/1/2/23 13. सन्मतितर्कप्रकरण, 3/69 14. उत्तराध्ययनसूत्र, 36/49 15. सम्बोधसत्तरी, 2 16. उपदेशतरङ्गिणी, 1/8 धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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