Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 33
________________ 17. तत्त्वनिर्णय, 140 18. महादेवस्त्रोत, 44 19. योगदृष्टिसम्भुच्चय, 130 20. उत्तराध्ययनसूत्र, 23 /25 21. तत्त्वसंग्रह, 3588 22. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम्, 22 - अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, हेमचंद्र 23. नत्थि नयहिंविहूणं सुत्तं अत्थो य जिणवये किंचि-आवश्यक निर्युक्ति, 544 24. सन्मतितर्क, 1 / 28 25. सव्वे समयंति सम्मं चेगवसाओ नया विरुद्धा वि । मिच्च ववहारिणो इव, राआदासीण वसवत्ती ॥ - विशेषा. भाष्य, 2267 26. अध्यात्मोपनिषद् - यशोविजय 61, 70, 71, 73. अरहता इसिणा बुइयं - इसिभासियाई 1. 28. एवमेगे उपासत्था ते भुज्जो विप्पगब्भिया । 27. एवं उवट्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया ।। -सूत्रकृतांग, 1/2/31-32 29. आचारांग, 2/1/5/29 30. हे खंदया ! सागयं, खंदया ! सुसागयं भगवती, 2 / 1 31. उत्तराध्ययन अध्याय 23 32. देखें- शास्त्रवार्तासमुच्चय, 3 / 206, 3 / 237, 6/64-67 Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 32 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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