Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 31
________________ खण्ड-खण्ड होती मानवता -डॉ. सागरमल जैन स्वार्थवादिता के चोगे में, मानव की मानवता कहीं खो गई है। तभी तो वह युगों से अपने आपको खण्ड-खण्ड में विभाजित करता रहा है। पहले अपने को देश और प्रदेश की सीमाओं से बाँटा. फिर प्रजातियों का भेद दिखाकर, काले और गोरे के रंगभेद पर, आर्य और अनार्य में बाँटा। . एक ने अपनी सभ्यता का दावा कर दूसरे को असभ्य और असंस्कृत बताया। फिर हमने ही वर्ण-व्यवस्था के नाम पर उसे एक को दूसरे से काटा। ब्राह्मण श्रेष्ठ और शूद्र नेष्ट कहकर मानवता के मुख पर मारा-चाँटा। फिर वर्णसंकरता ने अपना रूप दिखाया। जातियों के नाम पर यह भेद और गहराया जातियों के आधार पर धन्धे भी बँट गये, कुशलता और योग्यता के मापदण्ड नकार दिये गये। वर्ण और धन्धे जो कर्मणा थे, वंशानुगतता के स्वार्थवश सभी जन्मना मान लिये। स्वार्थवादिता या भाई भतीजावाद के इस चक्र में वर्णवाद और जातिवाद पुष्ट होता चला गया, मानवता खण्डित हो सिसकियाँ ही भरती रही। आज भी तो यही हो रहा है, स्वार्थवादिता और वोट बैंक की राजनीति में, जातिवाद पुष्ट हो रहा है कहीं धर्मवाद है तो कहीं राष्ट्रवाद है किन्तु ये सब, मानवता को मृत करने की साजिश मात्र हैं। यदि स्वार्थवाद के चोगे में यही सब होता रहा, तो मानव की मानवता मरती रहेगी, और यदि मानवता मर गई तो फिर मानव भी नहीं बचेगा। स्वार्थवादिता का यह शैतान मानव को मार कर ही, दम लेगा। . लेकिन यदि मानवता जी गई तो वह स्वार्थवादिता के शैतान को मार कर ही दम लेगी। धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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