Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 19
________________ हमारा प्रणाम है । वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो या जिन । वस्तुतः हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद करते रहते हैं । उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में परम तत्त्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारूणिक माना गया है । हमारी दृष्टि उस परम तत्त्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि - सदाशिव: परं ब्रह्मा सिद्धाता तथतेति च । शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं त्रैवमादिभिः ॥" अर्थात् यह एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, सिद्धात्मा कहें या तथा । नामों को लेकर जो विवाद किया जाता है उसकी निस्सारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुन्दर उदाहरण दिया जाता हैं। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला में एकत्रित हो गये । वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर परस्पर विवाद करने लगे । संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता उसे लेकर वहाँ आया । सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने विवाद की निस्सारता को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी यही स्थिति है । हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति या राग- -द्वेष के तत्त्वों से ऊपर उठना चाहते हैं किन्तु आराध्य के नाम या आराधना विधि को लेकर व्यर्थ में विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक अनुभूति से वंचित रहते हैं । वस्तुत: यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभुति के रस का रसास्वादन नहीं करते हैं । व्यक्ति जैसे वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की भूमिका का स्पर्श करता है उसके सामने ये नामों के विवाद निरर्थक हो जाते हैं । सत्रहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनन्दघन कहते हैं राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री । पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री ॥ Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म 18 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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