Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 17
________________ होता है कि हम यह मान लेते है कि मुक्ति केवल हमारे धर्म में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव है या प्राप्त हो सकती है । ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं, किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्त आधार पर खड़ी है, वस्तुत: दुःख या बन्धन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता हैं, इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण सदैव ही उदार रहा है। जैनधर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति बन्धन के मूलभूत कारण- राग द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेंगा, वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है । ऐसा नहीं हैं कि केवल जैन ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगमग्रन्थ है 'अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता हैं - इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य॥" 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों से है। जैनधर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय है और न कोई विशेष वेश-भूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा। समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो ॥ अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ उपदेशतरंगिणी में भी है। वे लिखते हैं कि - नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षसेवाश्रयेण मुक्ति, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥" धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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