Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 21
________________ आचार्य केशी, महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम से यह प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ और महावीर के आचार-नियमों में यह अन्तर क्यों हैं ? इससे समाज में मतिभ्रम उत्पन्न होता है। इन्द्रभूति गौतम ने उस समय जो कहाथा, वह आज के सन्दर्भ में भी महत्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं कि पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं । अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता हैं किधार्मिक जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। भगवान बुद्ध ने आलारकालाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य हैं । हे कालमों ! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये निर्दोष हैं- इनके अनुसार चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक अन्य बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में भी कहा गया है तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ॥1 जिस प्रकार स्वर्ण की तपाकर, छेदकर, कसकर और परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिये । धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और आस्था का नियंत्रक नहीं माना जायेगा, तब तक हम मानव जाति को धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अत: धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि में लगे हुए कुछ लोग अपने उन स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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