Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 12
________________ के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता है और मिथ्याश्रुत भी सम्यक् दृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत होता हैं-उसका मूल आशय यही है। धार्मिक असहिष्णुता का बीज-रागात्मकता धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है जब हम अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम मानने लगते हैं तथा अपने धर्म-गुरू को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं, तो यह अवधारणा ही धर्मिक वैमनस्यता का मूल कारण बन जाती है। वस्तुत: जब व्यक्ति की रागात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र द्रष्टा और उपदेशक मान लेते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्त्व जहाँ एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह उसे कहीं से तोड़ता भी है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस एकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया ह। भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को, जब तक भगवान् महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाये। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह कौन सा तत्त्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति में बाधक बन रहा था ? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम 500 शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् महावीर के पास ला रहे थे। महावीर के पास पहुँचते-पहुँचते उनके वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहाँ मेरे द्वारा दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं वहाँ मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूँ। उन्होंने अपनी इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत किया। गौतम पूछते हैं- हे भगवान ! ऐसा कौन सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता की प्राप्ति में बाधक बन रहा है ? महावीर ने उत्तर दिया - हे गौतम! तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है वही तुम्हारी सर्वज्ञता और धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34