Book Title: Dashvaikalik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 13
________________ श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर ૯ आचार और अनाचार तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचार का निरूपण है। जिस साधक में धृति का अभाव होता है वह आचार के महत्त्व को नहीं समझता, वह आचार को विस्मृत कर अनाचार की ओर कदम बढ़ाता है। जो आचार मोक्षसाधना के लिए उपयोगी है, जिस आचार में अहिंसा का प्राधान्य है, वह सही दृष्टि से आचार है और जिसमें इनका अभाव है वह अनाचार है। आचार के पालन से संयम साधना में सुस्थिरता आती है। आचार दर्शन मानव को परम शुभ प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। कौनसा आचरण औचित्यपूर्ण है और कौनसा अनौचित्यपूर्ण है, इसका निर्णय विवेकी साधक अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर करता है, जो प्रतिषिद्ध कर्म, प्रत्याख्यातव्य कर्म या अनाचीर्ण कर्म है, उनका वह परित्याग करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य जो आचरणीय हैं उन्हें वह ग्रहण करता है। आचार, धर्म या कर्त्तव्य है, अनाचार अधर्म या अकर्त्तव्य है। प्रस्तुत अध्ययन में अनाचीर्ण कर्म कहे गये हैं। अनाचीर्णों का निषेधकर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इस अध्ययन का नाम आचारकथा है। दशवैकालिक के छठे अध्ययन में 'महाचार - कथा' का निरूपण है। उस अध्ययन में विस्तार के साथ आचार पर चिन्तन किया गया है तो इस अध्ययन में उस अध्ययन की अपेक्षा संक्षिप्त में आचार का निरूपण है। इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकाचारकथा' दिया गया है। १४ प्रस्तुत अध्ययन में अनाचारों की संख्या का उल्लेख नहीं हुआ है और न अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूर्ण में और न जिनदासगणी महत्तर ने अपनी चूर्णि में संख्या का निर्देश किया है । समयसुन्दर ने दीपिका में अनाचारों की ५४ संख्या का निर्देश किया है। १५ यद्यपि अगस्त्यसिंह स्थविर ने संख्या का उल्लेख नहीं किया है तो भी उनके अनुसार अनाचारों की संख्या ५२ है, पर दोनों में अन्तर यह है कि अगस्त्यसिंह ने राजपिण्ड और किमिच्छक को व सैन्धव और लवण को पृथक्-पथक् न मानकर एक-एक माना है। जिनदासगणी ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग-अलग माना है तथा सैन्धव और लवण को एवं गात्राभ्यंग और विभूषण को एक-एक माना है। दशवैकालिक के टीकाकार आचार्य हरिभद्र सूरिजी ने तथा सुमति साधु सूरिजी ने अनाचारों की संख्या ५३ मानी है, उन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् माना है। इस प्रकार अनाचारों की संख्या ५४, ५३ और ५२ प्राप्त होती है। संख्या में भेद होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। अनाचारों का निरूपण संक्षेप में भी किया जा सकता है, जैसे सभी सचित्त वस्तुओं का परिहार एक माना जाए तो अनेक अनाचार स्वतः कम हो सकते हैं। जो बातें श्रमणों के लिए वर्ज्य हैं वस्तुतः वे सभी अनाचार हैं। प्रस्तुत अध्ययन में बहुत से अनाचारों का उल्लेख नहीं है किन्तु अन्य आगमों में उन अनाचारों का उल्लेख हुआ है। भले ही वे बातें अनाचार के नाम से उल्लिखित न की गयी हों, किन्तु वे बातें जो श्रमण के लिए त्याज्य हैं, अनाचार ही हैं। यहाँ एक बात का ध्यान रखना होगा कि कितने ही नियम उत्सर्गमार्ग में अनाचार है, पर अपवादमार्ग में वे अनाचार नहीं रहते, पर जो कार्य पापयुक्त है, जिनका हिंसा से साक्षात् सम्बन्ध है, वे कार्य प्रत्येक परिस्थिति में अनाचीर्ण ही हैं। जैसे • सचितभोजन, रात्रिभोजन आदि। जो नियम संयम साधना की विशेष विशुद्धि के लिए बनाये हुए हैं, वे नियम अपवाद में अनाचीर्ण नहीं रहते। ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गृहस्थ के घर पर बैठने का निषेध किया गया है। पर श्रमण रुग्ण हो, वृद्ध या तपस्वी हो तो वह विशेष परिस्थिति में बैठ सकता है। १४ एएसि महंताणं पडिवक्खे खुड्डया होंति ।। – नियुक्ति गाथा १७८ १५ सर्वमेतत् पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशद्भेदभिन्नमौद्देशिकतादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम् । - दीपिका (दशवैकालिक), पृ. ७

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