Book Title: Choubis Tirthankar Part 02
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 15
________________ पिता के निर्वाण के पश्चात राजाधिराज भरत कुछ समय तक राज्य एक दिन राजा भरत दर्पण में अपना मुख देख रहे थे कि सफेद बाल देखकर वैराग्य उमड़ पड़ा शासन तो अवश्य करते रहे पर अन्तर से बिल्कुल उदासीन रहते थे। उन्होंने तप को कल्याण का सच्चा मार्ग समझकर पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य भार सोंप कर स्वयं भगवान वृषभदेव की निर्वाण भूमि कैलाश गिरि सिद्ध क्षेत्र में चौबीस वृषभसेन गणधण के पास जाकर दीक्षा लेली। मुनि भरत का हृदय इतना अधिक निर्मल था कि तीर्थंकर के सुन्दर मंदिर बनवा कर उनमें मणिमयी जिन प्रतिमाएं विराजमान करायी थी। उन्हें कुछ ही समय बाद केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। स्थान-स्थान पर विहार कर धर्म का प्रचार किया अन्त में आत्म स्वातन्त्र्य रुप मोक्ष प्राप्त किया। इस तरह प्रथम तीर्थंकर भगवान वृषभनाथ का पवित्र चरित्र पूर्ण हुआ। इनके बैल का चिह्न था। NAVITADA 200nad भगवान श्री अजितनाथ जी।। भारत में अत्यन्त शोभायमान अयोध्यापुरी है, राजा जितशत्रु राज्य करते थे। जम्बुद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर मत्स्य नाम उनकी महारानी का नाम विजय सेना था। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर रत्न बरसाता के देश में सुसीमा नगरी में विमल वाहन राजा थे। एक दिन राजा विमल था। इसके बाद जेष्ठ मास की अमावस्या को रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी वाहन का कुछ कारणवश वैराग्य उत्पन्न हो गया वे सोचने लगे। |विजय सेना ने ऐरावत आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: महारानी ने स्वप्नों का | संसार के भीतर कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है। यह मेरी आत्मा भी एक दिन) फल राजा अजितशत्रु से पूछा। हे देवी! तुम्हारे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होगा। इस शरीर को छोड़ कर चली जायेगी। इसलिए आयु पूर्ण होने के पहले ही | उसी के पुण्य बल से छह माह पहिले ही प्रतिदिन रत्न बरस रहे हैं एवं आत्म कल्याण की ओर प्रवृति करनी चाहिए। आज तुमने सोलह स्वप्न देखें हैं। AALI FOLDK9ENO इस प्रकार विचार कर वन में जाकर एक दिगम्बरयति के सानिध्य में दीक्षित हो गये। दर्शन-निशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन भी किया था, जिससे उसके । तीर्थकर महापुण्य-प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में सन्यास पूर्वक मरकर विजयविमान में अहमिन्द्र हए। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान अजितनाथ जी हए। जैन चित्रकथा -13

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